एक विशिष्ट शृंखला...
फ़िल्मों के भारत में
आगमन को १०० साल होने की खुशी में हो रहे उत्सवों में अपने ज़माने के बडे बडे स्टार्स
को तो याद किया जाता रहा है। मगर क्या एक फ़िल्म सिर्फ़ उन दो चार सितारों से ही बनती
है? एक कहानी में छोटे-बडे कितने ही किरदार होते हैं। उनके योगदान को शायद कोई इतना याद नहीं करता। हालांकि वो तो नींव
के उन पथ्थरों के समान होते हैं, जिन से कहानी की इमारत खडी होती है और उस में मोड
आते हैं, जिस से कलाकार ‘स्टार’ बन जाते हैं।
इस
नई शृंखला में हम उन कलाकारों के संघर्ष तथा योगदान का स्मरण करने का नम्र प्रयास करेंगे।
उन में से कुछ तो अपने समय में नायक या नायिका की भूमिका भी कर चूके होंगे। आशा है, आप सब गुणी पाठक इसे
भी पसंद करेंगे।
सप्रु: परदे के खानदानी अमीर, जो कभी गरीब नहीं बने!
‘पाकिज़ा’
में
नीली आंखों वाले सप्रु को आज भी कौन भूला होगा? वो परिवार के बडे होने के नाते अपने
खानदान की इज़्ज़त के लिए गोली चला देते हैं, जो अशोक कुमार को लग जाती है। सप्रु अपनी
वजनदार आवाज़ और नीली आंखों वाले व्यक्तित्व से परदे पर अपना ऐसा प्रभाव जमाते थे कि
उन्हें कभी गरीब नहीं बनाया गया! हिन्दी सिनेमा के रेहमान जैसे उन गिने-चुने अदाकारों में वे शामिल होते थे, जिन्हें
बहुधा खानदानी रईस या जज जैसी बडी पदवी पर बिराजमान पात्र के रोल ही दिए जाते थे। कभी
नवाब तो कभी ज़मीनदार तो कभी ठाकुर बने सप्रु के परिवार का संबंध असली ज़िन्दगी में भी
कश्मीर के शाही खानदान से था।
सप्रु साहब के पिताजी कश्मीर के राजा हरीसिंग के शासन में उनकी डोगरा रियासत के खजानची हुआ करते थे। कश्मीर के इतिहास को जानने वाले हरीसिंग जी को भारत की आज़ादी के समय के कश्मीर के राजा और एक समय के हमारे विदेश मंत्री करणसिंग के पिताजी की हैसियत से जानते हैं। राजा के दरबार में इतने बडे ओहदे पर होने की वजह से इस कश्मीरी पंडित परिवार के जम्मु तथा लाहोर दो शहरों में घर हुआ करते थे। दोनों घरों में आधा आधा साल रहना होता था। इस लिए सप्रु जी ने बचपन से उर्दु और इंग्लीश दोनों भाषाओं पर काबु कर लिया था, जो आगे चल कर फ़िल्मों में उन्हें बहुत काम आया।
बचपन से उन्हें संगीत का शौक बहुत होने की वजह से दोस्तों की मेहफ़िल में सप्रु की मांग काफ़ी रहती थी। वे अपना अवकाश का समय लाहोर में बिताते थे। लिहाजा जब अर्थोपार्जन का समय आया तब वे कान्ट्रैक्टर बने और जलंधर कैन्टान्मन्ट (छावनी) में रहने लगे। वहाँ दो-तीन साल रहने के बाद दोस्तों ने सुझाया कि गौर वर्ण, नीली आंखों तथा दमदार आवाज़ वाले अपने इतने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के साथ ‘डी के’ को फ़िल्मों में अभिनय करना चाहिए। जी हां, सप्रु का पूरा नाम ‘दया किशन सप्रु’ था और दोस्त उन्हें प्यार से ‘डी के’ कहते थे।
दोस्तों की सलाह पर सप्रु चल पडे पुना की तरफ। लेकिन उन्होंने अपने पिताजी को ये नहीं बताया कि वे फ़िल्मों में काम करने के लिए पुना जा रहे थे। क्योंकि उन दिनों नामी परिवार के लोगों के लिए सिनेमा में काम करना अपनी शान के खिलाफ़ समझा जाता था। पुना पहुंच कर सप्रु प्रभात स्टुडियो में व्ही. शान्ताराम और उनके साथीओं से मिले। प्रभात में उनकी पहली फ़िल्म थी ‘राम शास्त्री’, जिस में वे ‘पेश्वा’ की सहायक भूमिका में आये। मगर कश्मीर की गुलाबी खुबसुरती और इतनी अच्छी पर्सनैलिटी कहाँ छिपने वाली थी?
सप्रु को विक्रम बेडेकर की अगली फ़िल्म ‘लखरानी’ में बतौर हीरो लिया गया। उन्होंने अपना नाम ‘दया किशन’ या ‘डी के’ नहीं पर कुलनाम (सरनेइम) ‘सप्रु’ ही बतौर नाम रख दिया। ये बात थी १९४४-४५ के दिनों की और उस वक्त उनका मासिक वेतन २५०० रुपिये था, जो उस ज़माने के हिसाब से बहुत ज्यादा था। ये बात सप्रु की बेटी रीमानाथ ने १९९४ में दिये एक इन्टरव्यु में बताते हुए कही थी; कि उनके पिताजी ‘प्रभात’ के सबसे ज्यादा वेतन पाने वाले अभिनेता थे।
सप्रु के दो बच्चे प्रीति सप्रु और तेज सप्रु भी हिन्दी सिनेमा के अभिनय क्षेत्र में आये हैं। जब कि एक और बेटी रीमा को पहले माधुरी दीक्षित तथा अनिल कपूर के सेक्रेटरी राकेशनाथ की पत्नी के रूप में ज्यादा जाना जाता था। मगर सलमान और संजय दत्त की फ़िल्म ‘साजन’ की वार्ता, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखने के बाद उनका अपना अच्छा नाम हो गया। सप्रु जी की यह पुत्री रीमा ‘सैलाब’, ‘याराना’ ‘दिल तेरा आशिक’, ‘आरज़ु’, ‘हम तुम्हारे हैं सनम’ जैसी माधुरी की मुख्य भूमिका वाली फ़िल्मों के लेखन से जुडी थी।
रीमा के उस इन्टरव्यु से ये भी पता चलता है कि प्रभात स्टुडियो में ही सप्रु साहब की पेहचान और दोस्ती देव आनंद, गुरुदत्त और रेहमान जैसे कलाकारों से हुई थी। उसी प्रभात स्टुडियो में बाद में फ़िल्म इन्स्टीट्युट हुआ और इन कलाकारों के बीच जिस वृक्ष के नीचे फ़िल्मों की चर्चा होती, उसी का नाम विद्यार्थीओं ने ‘वीज़डम ट्री’ रख दिया। सप्रु से उन दोस्तों की दोस्ती कैसी निभी उस का अंदाजा, हीरो से चरित्र अभिनेता बनने के बाद की, उनकी फ़िल्मों के नाम से भी पता चलता है। देव आनंद की ‘कालापानी’ हो या ‘ज्वेलथीफ’, ‘प्रेमपुजारी’ हो या ‘गैम्बलर’ सप्रु साहब की भूमिका याद रह जाती थी। गुरुदत्त ने अपनी फ़िल्म ‘साहब, बीवी और गुलाम’ में उन्हें एक भी संवाद नहीं दिया था। फिर भी उनके नेगेटीव पात्र के अनुरुप अभिनय सप्रु जी ने अपनी आंखों से किया था।
सप्रु की अन्य फ़िल्मों में ‘लीडर’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘शहीद’, ‘सत्यकाम’, ‘हीर रांझा’, ‘भाई हो तो ऐसा’, ‘जंजीर’, ‘शैतान’, ‘इम्तिहान’, ‘पैसे की गुडीया’, ‘हाथ की सफ़ाई’, ‘रेशम की डोरी’, ‘पथ्थर और पायल’, ‘कसौटी’, ‘बेनाम’, ‘मजबुर’, ‘दीवार’, ‘अदालत’, ‘फ़रार’, ‘छैलाबाबु’, ‘ड्रीम गर्ल’, ‘मुक्ति’, ‘धरमवीर’, ‘चरस’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘रफ़ुचक्कर’, ‘ज्योति बने ज्वाला’, ‘विश्वनाथ’, ‘कुदरत’ इत्यादि कई हैं।
सप्रु जी की शादी हेमावती
से हुई थी, जो खुद ‘पृथ्वी थिएटर्स’ की एक खुबसुरत अभिनेत्री थीं। उन के बारे में राज
कपूर ने एक इन्टरव्यु में कहा था कि अपनी नई नई युवानी के दिनों में वे हेमावती से
आकर्षित हुए थे। राज साहब के साथ ‘जैल यात्रा’
फ़िल्म में वे नायिका थीं। सप्रु साहब को एक फ़िल्म ‘बहादुर शाह ज़फ़र’ का निर्माण करना आर्थिक रूप से काफी नुकसान देह साबित
हुआ। अपना बंगला भी बेचना पडा।
अपनी ज़िंदगी के अंतिम
वर्षो में उन्हों ने होमियोपेथी का अभ्यास किया और लोगों का उपचार भी करते रहे। लेकिन
खुद उनको कैन्सर होने का समाचार वो झेल नहीं पाये। ओपरेशन ठीक से हो जाने के बाद भी
खुद को कैन्सर हुआ उस आघात से वे दिन ब दिन कमजोर होते गये। आखिर १९७९ में सिर्फ़ ६३
साल की आयु में हार्ट अटेक से उनका देहांत हो गया। लेकिन हर कलाकार की तरह सप्रु साहब
भी अपने किरदारों से सिनेमा के परदे पर आज भी जिन्दा ही हैं।
सर, हैट्स ऑफ टू यू। मैंने एक एसी ही सीरिझ नवरंग मेगेझिन (दिव्य भास्कर) के लिए बकुल टेलर जी के साथ परामर्श कर के सोच रखी थी कि जिन में एसे नींव के पत्थर की बात की जाए जिन को कभी खास तवज्जो नहीं मिली फिर भी उन के बिना फिल्म इतिहास हंमेशा अधूरा रहेगा। लेकिन नौकरी बदली तो वो योजना अधूरी रह गई।
ReplyDeleteआप जो अंदरूनी बात निकाल के लाए है वे तो लाजवाब है ही है, लेकिन आप की एक दूसरी बातने भी मुझे ओर आश्चर्यचकित कर दिया और वो ये कि आप जितनी अच्छी गुजराती लिखते है उतनी ही अच्छी हिन्दी भी। मसलन अंग्रेजी शब्दो को हिन्दी में जैसे लिखा जाता है आपने ठीक वैसे ही लिखा है...जैसे कि कान्ट्रैक्टर, कैन्टान्मन्ट। कोई भी गुजराती जहां पर गलती कर सकता था, वहीं आपने वो शब्दप्रयोग बिलकुल ठीक ढंग से किय। गुजराती में होद्दा लिखा और बोला जाता है, लेकिन आपने सही शब्द प्रयोग किया- ओहदे। ईसी तरह आप राज महेरा (जो कि काफी फिल्मो में इन्स्पेक्टर, कमिश्नर के किरदार में नजर आए थे), कुमार (जो कि श्री 420 में भीखारी के रूप में दिखे), राजन हस्कर, मनमोहन आदि के बारे में भी आप लिखे एसी मेरी बिनती है।
धन्यवाद जयवंत जी!
Deleteआपकी प्रशंसा से और भी बल मिलता है। हाईस्कूल में हिन्दी की पढाई चार साल तक की है, तो कुछ तो असर रहेगा न?
स्कूल में थे तब गुजरात विद्यापीठ संचालित हिन्दी की ‘पहली’ ‘दुसरी’ और ‘तीसरी’ की परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने का यह फल है। फिर हिन्दी सिनेमा से इतना लगाव भी तो है! यहाँ बातचीत में भी हमारे हिन्दी भाषी मित्र मानने को तैयार नहीं होते कि मैं कभी दिल्ही में नहीं रहा हुं!!!
आपके सुझाव वाले कलाकारों के बारे में अगर जानकारीयाँ उपलब्ध होगी तो अवश्य लिखुंगा।
फिर से एक बार धन्यवाद।
-सलिल