Friday, December 13, 2013

ये आज भी ज़िन्दा ही है..... लीला मिश्रा!



                       लीला मिश्रा
हिन्दी सिनेमा की माँ सी अमर ‘मौसी’ जी!


‘शोले’ में धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढकर जिन को जेल में ‘चक्की पीसींग एन्ड पीसींग एन्ड पीसींग’ कराने की धमकी देते हैं, उन ‘मौसी’ लीला मिश्रा को कौन भूल सकता है? लीला जी को फ़िल्मों में कितने सारे रोल में हमने देखा था। कभी वे ‘राम और श्याम’ में दिलीपकुमार (राम) की मां बनीं थीं तो कभी वे ‘दासी’ में मौसमी चेटर्जी की ‘मामी’ थी। मगर ‘शोले’ की ‘मौसी’ ने उन्हें जो सफलता और लोकप्रियता दी, उसका कोइ जोड नहीं। हालांकि लीला मिश्रा को पर्दे पर अपना काम देखने के लिए सिनेमाघर जाना भी पसंद नहीं था। उन्होंने अपने ‘पवित्र बनारस’ वाले अभिगम को मुंबई में भी बरकरार रखा था और फ़िल्में नहीं देखतीं थीं.... यहाँ तक की ‘शोले’ और सत्यजीत राय की ‘शतरंज के खिलाडी’ भी नहीं!
  
लीला मिश्रा जी के लिए फ़िल्मों में अभिनय करना नौकरी करने जैसा था। उसके साथ जुडे ग्लेमर से वे अछूती रही थी। १९८७ में ‘माधुरी’ में इसाक मुजावर की लिखी उनकी जीवन-कथा के अंशों से पता चलता है कि लीला मिश्रा के अभिनय जीवन में भी (निरुपा राय की तरह) पति के एक्टिंग के शौक ने बडी भूमिका निभाई थी। लीला जी की शादी १२ साल की उम्र में हो गई थी और उनके पति राम प्रसाद मिश्रा को एक्टिंग का भारी शौक था। वे आगा हश्र कश्मीरी के नाटकों में काम करते थे। लेकिन उन्हीं दिनों बोलती फ़िल्मों का समय शुरु हुआ था। इस लिए नाटकों के कलाकारों के लिए उस नये माध्यम के दरवाजे भी खुले थे। इसी सिलसिले में राम प्रसाद प्रतापगढ, बनारस और मुंबई आते जाते रहते थे।

मिश्रा जी को मुंबई में एक फ़िल्म कंपनी में नौकरी तो मिल गई; जहां खाना उन्हें मेहर सुलतान नामक एक अभिनेत्री बनाकर देती थी। मेहर सलाह पर मिश्राजी ने पत्नी को बम्बई बुला लिया। उन दिनों सिनेमा की सबसे बडी समस्या थी, अभिनेत्रीओं की कमी। अभिनय करने वालों को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था! फिर लीला मिश्रा और उनके पति दोनों तो जमीनदार परिवार के थे। इस लिए जब नासिक की एक फ़िल्म कंपनी ने लीला जी को अभिनेत्री बनाने का प्रस्ताव रखा, तो निर्णय लेना काफी मुश्किल था। कंपनी ने भी लीला जी को पांचसो रुपये महिना का अत्यंत लुभावना वेतन ओफर किया था। (उनके पति को मासिक १५० रुपये मिलते थे!) तब पति-पत्नी ने परिवारजनों और बिरादरी से संबंध को जोखिम में डालकर भी उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

वह फ़िल्म थी ‘सति सुलोचना’ और लीला मिश्रा को ‘मंदोदरी’ की भूमिका मिली थी। मगर लीला जी तो बनारस की एक घरेलु औरत थी, जिन्हें पराये मर्द का छुना कहाँ मंजूर था? यहां तक कि पहली बार जब मेकअप मेन ने उनके चेहरे को छुआ तब वहां मौजुद अपने पति से वे बेहद नाराज हो गई थी कि ये कैसे मर्द हैं जो अपनी पत्नी के चेहरे को पराये मर्द के हाथों स्पर्श करवा रहे हैं? इस लिए किसी पराये पुरुष (अभिनेता) के गले में हाथ डालकर उस से प्रेमालाप करने का तो सवाल ही कहां उठता था? परिणाम ये हुआ कि उस फ़िल्म से उन्हें निकाला गया।

मगर उस से एक फायदा ये हुआ कि कोल्हापुर की एक अन्य कंपनी ने उन्हें ओफर दिया। उनकी तनख्वाह अंतिम कंपनी में थी उतनी ही यानि कि ५०० रुपये तय हुई और दो साल का करार किया गया। मगर यहां भी वही दिक्कत आई। इस फ़िल्म में भी उन्हें हीरो मास्टर विनायक (अभिनेत्री नंदा के पिताजी) के गले में हाथ डालकर उन्हें लुभाना था। ‘मौसी’ फिर अड गई कि वो ऐसे द्दश्य नहीं करेंगीं। अब कंपनी के लिए मुश्किल आ गई कि कोन्ट्रेक्ट में तो कुछ लिखा नहीं था कि अभिनेत्री को क्या क्या करना होगा? लिहाजा उस पिक्चर के निर्माण के दौरान बिना काम किये वेतन देना पडा। 

इस लिए जब नई फ़िल्म ‘होनहार’ का शूटींग प्रारंभ हुआ तब कंपनी को उन्हें ऐसा काम देना था, जिस में पराये मर्द से ‘आंख मटक्का’ करना ना हो। एक ऐसा रास्ता निकाला गया जिस से दोनों की बात रहे। लीला मिश्रा से हीरो शाहू मोडक की माता की भूमिका करवाई। तब से ‘चरित्र अभिनेत्री’ बन गई लीला जी अंत तक उसी तरह की भूमिकाएं करतीं रहीं। उनकी बतौर नायिका आई एक मात्र फ़िल्म ‘गंगावतरण’ को छोड दें तो लीला मिश्रा हिन्दी सिनेमा की शायद एक मात्र अभिनेत्री होंगी जिन्हों ने अपनी युवानी में ही अपने से उम्र में बडे अभिनेता-अभिनेत्रीओं की माता, चाची या मौसी की भूमिकाएं की!

‘गंगावतरण’ दादा साहब फाळके की एक मात्र सवाक फ़िल्म थी। जैसा कि सभी जानते हैं, भारतीय सिनेमा की प्रथम (मूक) फ़िल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बनाने वाले फाळके दादा थे। ‘गंगावतरण’ उनकी अंतिम फ़िल्म साबित हुई और लीला मिश्रा के लिए भी। क्योंकि उस कंपनी के साथ अनुबंध समाप्त हो गया था। अब काम नहीं होने के कारण तथा अपनी प्रथम संतान के जन्म के लिए गर्भवती लीला मिश्रा और उनके पति वापिस बनारस चले गए। यानि अपनी ज़िन्दगी में मां बनने से पहले ‘मौसी’ ने पर्दे पर अपने से बडी उम्र के कलाकारों की माता की भूमिका करना शुरु कर दिया था।


प्रथम संतान बेटी के जन्म के बाद फिर से काम ढूंढने का प्रयत्न किया कलकत्ता में और फ़िल्म कारपोरेशन ओफ इन्डिया में ‘नौकरी’ मिल गई। यहां उन्होंने ‘चित्रलेखा’ जैसी कुछ फ़िल्में की। मगर उसी दौरान विश्व युध्ध हुआ और सारी गतिविधियां ठप्प हो गईं। वापिस बनारस आ गए। परंतु, अब तीन बच्चों (दो बेटियां और एक बेटे) वाला परिवार था। फिर से रुख किया बम्बई का। अब की बार काम आये बनारस के केमेरामेन ‘के.जी.’ जिन्होंने लीला चिटणीस से मिलवाया। ‘मौसी’ अपने परंपरागत तरीके से लंबा घूंघट निकालकर स्टुडियो पहुंची। तब ‘के.जी.’ने उन्हें समझाया और अपना चेहरा दिखाकर ‘इन्टर्व्यु’ दिया। लीला चिटणीस ने अपनी साथी कलाकार के रूप में ‘किसी से न कहना’ के लिए लीला मिश्रा को पसंद किया। तब से मुंबई की फ़िल्मों में ‘मौसी’ का जो सफर शुरु हुआ वो अंत तक जारी रहा। मगर साडी से अपने सर को ढके रखने का उनका भारतीय अंदाज बहुधा फ़िल्मों में बरकरार रखा।
 
‘मौसी’ की याद आते ही अपने सर को ढकने के लिए साडी को ठीक करती प्रौढ महिला ही नजरों के सामने आती है। उनके बोलने का अंदाज भी बनारसी था। आज भी याद है नूतन और सुनिल दत्त की ‘मिलन’ में जब वे जमुना को अंतिम द्दश्यों में कहतीं हैं, “कल मुही तुने जो आग लगाई है उस में तु तो जलेगी ही, मगर वो दोनों भी भसम हो जायेंगे।” ये ‘भस्म’ की जगह ‘भसम’ बोलना लीला मिश्रा का अनोखा देहाती अंदाज था।इस लिए भारतीय पृष्ठभूमि की फ़िल्में बनाने वाले ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की तो लीला मिश्रा जैसे स्थायी सदस्या थीं।

‘राजश्री’ की फ़िल्में ‘गीत गाता चल’, ‘सौदागर’, ‘दुल्हन वोही जो पिया मन भाये’, ‘सावन को आने दो’, ‘सुनयना’, ‘अबोध’ की वे हिस्सा थीं। लीला मिश्रा की अन्य फ़िल्मों में शामिल हैं; ‘चश्मे बद्दूर’, ‘आमने सामने’, ‘पलकों की छांव में’, ‘बैराग’, ‘किनारा’, ‘कथा’, ‘खुश्बु’, ‘सदमा’, ‘जय संतोषी मा’, ‘बडा कबुतर’, ‘बातों बातों में’, ‘मेहबूबा’, ‘मां का आंचल’, ‘अन्नदाता’, ‘हनीमुन’, ‘प्यासा’, ‘आवारा’, ‘अनमोल घडी’, ‘दाग’, ‘लाजवंती’, ‘लीडर’, ‘दोस्ती’, ‘रात और दिन’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘अमर प्रेम’, ‘सुहाना सफर’, ‘लाल पथ्थर’, ‘मेरे अपने’, ‘परिचय’ इत्यादि।

इतनी सारी फ़िल्मों में काम करने के बावजुद लीला मिश्रा काफी हीरो-हीरोइन को पहचान नहीं सकती थी। उन्होंने खुद १९७८ के एक साक्षात्कार में पत्रकार देवेन्द्र मोहन को बताया था कि ‘दुश्मन’ की शूटींग के पहले दिन राजेश खन्ना को वे पहचान नहीं पाई थी। फ़िल्मी दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उस से अलिप्त रहीं इस चरित्र अभिनेत्री ने १९८८ की १७ जनवरी के दिन अंतिम सांस ली। मगर उनकी अनेक भूमिकाओं से ‘मौसी’ आज भी ज़िन्दा ही हैं।




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