Wednesday, July 17, 2013

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं : नाना पलसीकर



एक नई शृंखला...ये आज भी ज़िन्दा हैं!

फ़िल्मों के भारत में आगमन को १०० साल पूरे होने की खुशी में हो रहे उत्सवों में अपने ज़माने के बडे बडे स्टार्स को तो याद किया जाता रहा है। मगर क्या एक फ़िल्म सिर्फ़ उन दो चार सितारों से ही बनती है? एक कहानी में छोटे-बडे कितने ही किरदार होते हैं। उनके योगदान को  शायद कोई इतना याद नहीं करता। हालांकि वो तो नींव के उन पथ्थरों के समान होते हैं, जिन से कहानी की इमारत खडी होती है और उस में मोड आते हैं, जिस से कलाकार ‘स्टार’ बन जाते हैं।

१०० साल के उत्सव के दौरान अगर किसी निर्माता-निर्देशक ने ऐसे कलाकारों के बारे में कोई दस्तावेजी चित्र बनाया होता तो कितना अच्छा होता? अगर सिनेमा के पर्दे पर नहीं हुआ उसे हम अखबार के माध्यम से करने की कोशीश करेंगे। इस नई शृंखला में हम उन कलाकारों के संघर्ष तथा योगदान का स्मरण करने का नम्र प्रयास करेंगे। उन में से कुछ तो अपने समय में नायक या नायिका की भूमिका भी कर चूके होंगे। आशा है आप सब गुणी पाठक इसे भी पसंद करेंगे।

नाना पलसीकर:
           सामान्य पात्रों के असामान्य अभिनेता!


 
हिन्दी फ़िल्मों के निर्देशकों को जब भी किसी गरीब व्यक्ति के पात्र के लिए चरित्र अभिनेता की आवश्यकता होती थी, एक ऐसा भी दौर था जब, सबसे पहली पसंद नाना पलसीकर ही होते थे। याद है ना, ‘बहारों के सपने’ में राजेश खन्ना के मिल मजदुर पिता? फ़िल्म का शिर्षक ही उन पर था। एक गरीब पिता जिसका बेटा पढ-लिख कर बी.ए. हुआ है, वो आने वाले अच्छे समय के सपने देखता है। उस फ़िल्म में नाना के हिस्से जितने भी द्दश्य आए थे, हर एक में उनका इतना वास्तविक अभिनय था कि लगता जैसे वो किसी मील के असली मजदुर ही हों। वे अपने बेटे के ‘बी. ए. पास’ होने की बात मिल के मेनेजर के केबीन में जिस गर्व से करते हैं वो या वही मेनेजर जब उन्हें (बुढे-बिमार मिल वर्कर को) “चलती फिरती लाश” कहते हैं, तब का अभिनय कोई नहीं भूल सकता।

नाना पलसीकर को रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ में सिर्फ़ एक ही सीन मिला था। फ़िल्म में गांधीजी को ‘चंपारण सत्याग्रह’ से पहले वहां के गरीब किसानों की व्यथा से पीडित होते दिखाना था। तब एक अकिंचन, बिमार, बुढे खेत मजदुर की छोटी सी भूमिका में नाना पलसीकर दर्शकों में कितनी अनुकंपा जगा गए थे। ‘गांधी’ का महत्व इस लिए भी है कि वह फ़िल्म १९८२ में आई थी, जब नाना ७५ साल के थे और अपने जीवन के अंत के समीप थे। क्योंकि दो साल बाद १९८४ की पहली जुन के दिन उनका देहांत हो गया था।  


१९०७ में जन्मे नाना की पहली फ़िल्म १९३५ की ‘धुंवाधार’ थी, जिस में उनकी नायिका लीला चिटणीस थीं, जिन्होंने भी अपने जीवन के उत्तरार्ध में माता की अनेक भूमिकाएं कीं थीं। फ़िल्म के पर्दे पर लाचार व्यक्ति बनते नाना असल ज़िन्दगी में किसी गरीब के हक के लिए लडने वाले इन्सान थे। उन के मृत्यु के बाद, अपने समय की श्रेष्ठ फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ में श्रद्धांजलि-लेख लिखते हुए, जानेमाने पत्रकार गोपाल शर्मा ने लिखा था कि “नाना समाज सेवा कार्य के लिए हमेशा तैयार रहते थे। गो रक्षा के लिए देवनार कसाईघर जाना हो, वे फौरन तैयार। किसी क्लब के लिए कोई सहायता कार्य हो- नाना तैयार। किसी भी सरकारी दफतर में किसी अकिंचन का कोई काम अटका हो- नाना उसके लिए भी तैयार...''


नाना पलसीकर का अभिनय ’६० के दशक में पूरी तरह से खिला था; जब दो बार, यानि १९६२ और १९६५ में, वे ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेता’ का फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड जीते थे! उन दिनों नाना जैसे नोनस्टार एक्टर के लिए उस प्रतिष्ठित पुरस्कार को एक बार जीतना भी बहुत बडी उपलब्धि माना जाता था। ऐसे में तीन साल के भीतर दो एवार्ड उनकी अभिनय क्षमता का अनोखा प्रमाण था। उन दोनों ही फ़िल्मों, बी आर चोपडा की ‘कानून’ तथा ख्वाजा एहमद अब्बास की ‘शहर और सपना’, में एक से एक बढिया कलाकार थे। ऐसे में अपना लोहा मनवाना कोई छोटी बात नहीं थी।


‘कानून’ में नाना का रोल ‘कालिया’ का था, जो एक पेशेवर चोर है। फ़िल्म में अशोक कुमार, ओम प्रकाश, जीवन और मनमोहन क्रिश्ना जैसे सहायक कलाकार भी थे। मगर नाना ने बढी हुई दाढी और फटे कपडों में ‘कालिया’ के किरदार को जिस अंदाज से अभिनित किया, उसका असर किसी अन्य पात्र से ज्यादा था। उसी तरह से ‘शहर और सपना’ के ‘जहोनी’ की भूमिका भी इतने अच्छे से उन्हों ने निभाई थी, कि एक नहीं दो दो पुरस्कार उन्हें मिले। ‘जहोनी’ के रोल के लिए नाना पलसीकर को न सिर्फ़ ‘फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड’ मिला, बल्कि प्रतिष्ठित ‘बेंगाल फ़िल्म जर्नालिस्ट एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया।



मगर ऐसा भी नहीं था कि पर्दे पर नाना सिर्फ़ गरीब ही बने थे। राजकपूर की ‘श्री ४२०’ में वे सुट बुट में जुआ खेलते अमीर बने थे। तो ‘आरज़ु’ में राजेन्द्रकुमार की टांग का ओपरेशन करने वाले डॉक्टर की भूमिका की थी। अपनी अंतिम फ़िल्मों में से एक १९८० की ‘नक्सलाइट’ में वे उस आंदोलन के एक नेता चारु मजुमदार के रोल में थे। तो ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में वे वकील बने थे। ‘दास्तान’ और ‘जागते रहो’ के डॉक्टर और ‘धुंध’ के जज नाना पलसीकर ‘हीर रांझा’ में दीवान भी बने थे। परंतु, उनका व्यक्तित्व गरीब और लाचार सामान्य व्यक्ति के पात्र में ज्यादा जंचता था।


इस लिए बिमल रोय की ‘दो बीघा ज़मीन’ के पोस्टर पर भी गरीब किसान बने नाना बलराज साहनी और निरुपा रोय इत्यादि के साथ दिखते थे। वे ओम पुरी की प्रारंभिक फ़िल्मों में से एक ऐसी ‘आक्रोश’ में गरीब आदिवासी पिता बने थे। उनकी अभिनय प्रतिभा की प्रशंसा आंतरराष्ट्रीय प्रेस में भी होती थी, जब वे किसी अंग्रेजी फ़िल्म में काम करते थे। जैसा कि जेम्स आइवरी की ‘गुरु’ के बारे में हुआ था। उस में नाना पलसीकर की भूमिका अत्यंत छोटी होने के बावजुद अपनी उपस्थिति की तरफ ध्यान आकर्षित कर ही लिया था। उस फ़िल्म में उनके अभिनय का विशेष उल्लेख ‘न्युयोर्क मेगज़ीन’ की समीक्षक जुडीथ क्रिस्ट ने भी किया था।  
यही कारण है कि जब कभी भी हम नाना पलसीकर की छोटी भूमिकाओं वाली भी पुरानी फ़िल्मों को देखते हैं, हमेशा वे अपनी अलग छाप छोडते मालूम पडते हैं। नाना पलसीकर की फ़िल्मों में ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’, ‘गुमराह’, दुश्मन‘’, ‘संबंध’, ‘आदमी और इन्सान’, ‘ललकार’, ‘प्रेमनगर’, ‘धर्मात्मा’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘उपहार’, ‘शोर’, ‘पति पत्नी और वोह’, ‘भरोसा’, ‘गीत गाया पथ्थरोंने’, ‘पूजा के फूल’, ‘दोस्ती’, ‘आखरी खत’, ‘दूर गगन की छांव में’, ‘औरत’, ‘कर्म’, ‘अनाडी’, ‘साजन बिना सुहागन’, ‘धी बर्नींग ट्रेइन’ इत्यादि हैं।


लेकिन नाना सिर्फ़ अच्छे फ़िल्म अभिनेता ही नहीं थे, जैसा कि गोपाल शर्मा जी की श्रध्धांजलि से पता चलता है, वे एक कार्यशील इन्सान भी थे। कोई कहता था वे शिवसेना से जुडे थे, तो कोई उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित कहता था। वे श्रीमती इन्दीरा गांधी के भी बडे प्रशंसक रहे थे। लोगों की सहायता के लिए सदा तत्पर नाना एक अंतर्मुखी व्यक्ति थे। उस     श्रद्धांजलि लेख में गोपाल शर्माने लिखा है कि फ़िल्म उद्योग में “उनके परम मित्र अशोक कुमार तक को यह पता नहीं चला कि वे (नाना) अविवाहित थे। उनके साथ रहने वाले परिवार की सदस्या श्रीमति दामले ने उनके अंतिम दिनों में बहुत देखरेख की। लोग उन्हें ही नाना की पत्नी समझते रहे। वास्तव में वे उनकी सेवा सुश्रुषा करने वाली नर्सींग सिस्टर थीं। एक पूजनीय आत्मा। वे श्रीमति दामले से अनुग्रहित थे। इस लिए अपना सब कुछ उन्हें ही सौंप गये हैं।”


अपने उस लेख के अंत में गोपाल शर्मा कहते हैं, फ़िल्म उद्योग में नाना पलसीकर को वह स्थान प्राप्त था जो हिन्दी काव्य में निरालाजी को था। निराला ने दलित वर्ग की पैरवी की। नाना ने उन्हें परदे पर उतारा।” नाना पलसीकर के इतने सारे किरदारों को देखते हुए उन्हें हम भी ‘निराला अभिनेता’ ही कहेंगे।







1 comment:

  1. नानाजी कइ खुबीया उजागर करता लेख बहुत अच्छा और माहिति से भरपुर था एसे सुंदर लेख के लिए हार्दिक बधाइ !

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