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फ़िल्मों के भारत में आगमन को १०० साल पूरे होने की खुशी में हो रहे उत्सवों में अपने ज़माने के बडे बडे स्टार्स को तो याद किया जाता रहा है। मगर क्या एक फ़िल्म सिर्फ़ उन दो चार सितारों से ही बनती है? एक कहानी में छोटे-बडे कितने ही किरदार होते हैं। उनके योगदान को शायद कोई इतना याद नहीं करता। हालांकि वो तो नींव के उन पथ्थरों के समान होते हैं, जिन से कहानी की इमारत खडी होती है और उस में मोड आते हैं, जिस से कलाकार ‘स्टार’ बन जाते हैं। १०० साल के उत्सव के दौरान अगर किसी निर्माता-निर्देशक ने ऐसे कलाकारों के बारे में कोई दस्तावेजी चित्र बनाया होता तो कितना अच्छा होता? अगर सिनेमा के पर्दे पर नहीं हुआ उसे हम अखबार के माध्यम से करने की कोशीश करेंगे।
इस नई शृंखला `ये आज भी जिन्दा हैं' में हम उन कलाकारों के संघर्ष तथा योगदान का स्मरण करने का नम्र प्रयास करेंगे। उन में से कुछ तो अपने समय में नायक या नायिका की भूमिका भी कर चूके होंगे। आशा है आप सब ‘सलिल की मेहफ़िल’ के गुणी पाठक इसे पसंद करेंगे।
‘इ्त्तेफ़ाक’ राजेश खन्ना की आरंभिक फ़िल्म और कहानी में सस्पेन्स भरा था। ऐसे में जांच करने वाले पुलिस ओफिसर की भूमिका कितनी अहम हो जाती है। मगर ऐसा भी नहीं था कि इफ़्तेख़ार के लिए उस प्रकार की वह प्रथम थी। उन्होंने राजकपूर की ‘श्री ४२०’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में तथा ‘पिंजरे के पंछी’ वगैरह में वे पुलिस इन्स्पेक्टर बने थे। मगर ‘इत्तेफ़ाक’के बाद तो जैसे वर्दी इफ़्तेख़ार की दुसरी त्वचा बन चूकी थी।
फिर तो न सिर्फ पुलिस के अफसर की भूमिका में वे इतनी सारी फ़िल्मों में आये थे.... ‘इन्तकाम’, ‘जहोनी मेरा नाम’ ‘एलान’, ‘धी ट्रेइन’, ‘दाग’ ‘अपराध’, ‘लोफर’, ‘जीवन संग्राम’, ‘पथ्थर और पायल’, ‘बदला’, ‘मजबुर’, ‘खेल खेल में’, ‘आखरी दाव’, ‘साज़िश’, ‘चोरी मेरा काम’, ‘एक से बढकर एक’, ‘जानेमन’, ‘फ़कीरा’, ‘चांदी सोना’, ‘’पापी, ‘बेशरम’, ‘फांसी’, ‘खून का बदला खून’, ‘झुठा कहीं का’, ‘क्रोधी’, ‘डोन’, ‘मंगल पांडे’, ‘हादसा’, ‘महान’, ‘आवाज़’, ‘कानोन क्या करेगा’, ‘इन्किलाब’, ‘राम तेरा देश’, ‘युद्ध’, ‘गलियों का बादशाह’ इत्यादि इत्यादि। इन में से किसी में इफ़्तेख़ार इन्स्पेक्टर बने तो किसी में कमिश्नर। कहीं वे डीआइजी तो अन्य में आइजीपी!
फ़िल्मों के भारत में आगमन को १०० साल पूरे होने की खुशी में हो रहे उत्सवों में अपने ज़माने के बडे बडे स्टार्स को तो याद किया जाता रहा है। मगर क्या एक फ़िल्म सिर्फ़ उन दो चार सितारों से ही बनती है? एक कहानी में छोटे-बडे कितने ही किरदार होते हैं। उनके योगदान को शायद कोई इतना याद नहीं करता। हालांकि वो तो नींव के उन पथ्थरों के समान होते हैं, जिन से कहानी की इमारत खडी होती है और उस में मोड आते हैं, जिस से कलाकार ‘स्टार’ बन जाते हैं। १०० साल के उत्सव के दौरान अगर किसी निर्माता-निर्देशक ने ऐसे कलाकारों के बारे में कोई दस्तावेजी चित्र बनाया होता तो कितना अच्छा होता? अगर सिनेमा के पर्दे पर नहीं हुआ उसे हम अखबार के माध्यम से करने की कोशीश करेंगे।
इस नई शृंखला `ये आज भी जिन्दा हैं' में हम उन कलाकारों के संघर्ष तथा योगदान का स्मरण करने का नम्र प्रयास करेंगे। उन में से कुछ तो अपने समय में नायक या नायिका की भूमिका भी कर चूके होंगे। आशा है आप सब ‘सलिल की मेहफ़िल’ के गुणी पाठक इसे पसंद करेंगे।
इफ़्तेख़ार: असली से भी ज्यादा रॉबदार पुलिस अधिकारी!
‘बम्बई
के पुलिस कमिश्नर’ का नाम असल में चाहे कोई भी हो, ’७०
और ’८० के दशक में हिन्दी फ़िल्म देखने वालों के दिमाग में एक ही तस्वीर होती थी....
अभिनेता इफ़्तेख़ार की! यहाँ तक कि ट्रेफिक सर्कल या एयरपोर्ट पर ड्युटी बजाने वाले असली
पुलिस कर्मी भी उन्हें देखते तो सेल्युट लगाते थे। किसी भूमिका के साथ एक अभिनेता के
व्यक्तित्व का इतना घूल-मिल जाना ये कोई छोटी बात नहीं थी। मगर आश्चर्य की बात ये थी
कि इफ़्तेख़ार तो अभिनेता नहीं, चित्रकार और गायक बनना चाहते थे!
चित्रकार बनने की तो
उन्होंने पढाई भी की थी और लखनौ स्कूल ओफ फाइन आर्ट्स से बाकायदा डिप्लोमा प्राप्त
किया था। जब कि मेरिस कालिज में संगीत की भी दो साल पढाई की थी। परिणाम ये कि वे उन
दिनों के सुपर स्टार के.एल. सहगल साहब की तरह गाते थे। परंतु, संगीत तथा पेइन्टिंग
ये दोनों ही क्षेत्र उन दिनों में ऐसे थे, जिनमें इतना पैसा नहीं मिलता था कि घर-परिवार
का खर्च चल सके। लिहाजा इफ़्तेख़ार कानपुर में चमडे की एक ब्रिटीश फैक्ट्री में नौकरी
करते थे।
परंतु, देखिए किस्मत कहां से कहां ले जाती है! इफ़्तेख़ार
उस नौकरी से छुट्टीयां लेकर १९४३ में जब कलकत्ता गए तब घूमने के उपरांत उनका आशय गायक
बनने की अपनी तमन्ना के मौके तलाशने का भी था। कलकत्ता में एच.एम.वी. के मुख्य संगीतकार
कमल दासगुप्ता को न सिर्फ़ इफ़्तेख़ार की सहगल जैसी आवाज़ बल्कि उनका व्यक्तित्व भी इतना
पसंद आया कि एम.पी. प्रोडक्शन नामक कंपनी में उनका स्क्रीन टेस्ट करवाया। वहाँ एस.डी.
बर्मन से भी मुलाकात की। सचिनदा उस वक्त दो नए गायकों की रिकार्डिंग कर रहे थे....
जिन के नाम थे तलत मेहमूद और हेमंतकुमार! कलकत्ता से इफ़्तेख़ार अपने दो गीतों की रिकार्डिंग
और स्क्रीन टेस्ट दे कर वापिस कानपुर आ गए।
कुछ समय बाद उन दो गानों का एक रिकार्ड मार्केट में
रिलीज़ हुआ। उन दिनों एक डीस्क पर सिर्फ़ दो ही गाने होते थे। इफ़्तेख़ार ने अपनी जेब से
पैसे निकाल कर कुछ कापियां खरीदी और अपने रिश्तेदारों तथा दोस्तों में बांटी। कानलुर
के अपने छोटे से समाज में एक तरह से वो स्टार
गायक हो गए। कलकत्ता में दिए स्क्रीन टेस्ट को जैसे वो भूल ही गए थे। ऐसे में छह महिने
बाद एम.पी. प्रोडक्शन से तार आया!
अब दुविधा थी... कानपुर के मान्य गायक की ज़िन्दगी
और नौकरी की सलामती को बरकरार रखें या अभिनय की अनिश्चित दुनिया में कलकत्ता जाना पसंद
करें? उस समय उनकी उम्र सिर्फ २३ साल की थी (जन्म तारीख: फेब्रुआरी २२, १९२०)। उनकी
दुविधा को दूर किया उनके पिताजी ने। अब्बाजान ने हिंमत बढाते हुए कहा कि अगर हर क्षेत्र
में अपना हाथ आजमाया है तो एक्टिंग भी आजमा लो। पिताजी के प्रोत्साहक शब्दों पर पहुंचे
कलकत्ता की फ़िल्मी दुनिया में अभिनेता बनने।
कलकत्ता में इफ़्तेख़ार
की तीन साल में चार फ़िल्में रिलीज़ हुईं... ‘तकरार’,
‘घर’, ‘राजलक्ष्मी’ तथा ‘तु और मैं’
और इन चारों में वे हीरो थे। मगर तभी ’४६ के वो भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसने
देश के विभाजन के फैसले पर नेताओं को मजबुर कर दिया। उन दंगों में हजारों की हत्या
हुई। हिन्दु-मुस्लिम एकता की जगह दुश्मनी ने ले ली। परिणाम ये कि कंपनी ने इफ़्तेख़ार
को भी नौकरी से निकाल दिया। उनके पिताजी पाकिस्तान रवाना हो रहे थे और बेटे को भी साथ
ले जाना चाहते थे। मगर अब वे शादीशुदा तथा छोटी छोटी दो बेटीयों (सलमा और सईदा) के
परिवार वाले थे। इफ़्तेख़ार ने कलकत्ता में ही रहने का फैसला किया। एक साल के कठिन संघर्ष
के बाद भी जब काम नहीं मिला, तब विभाजन से बंटे देश के पंजाब जैसे अन्य हिस्सों के
कलाकारों की तरह वे भी बम्बई पहुंचे।
बम्बई में भी संगीत
ही उनके काम आया! संगीतकार अनिल बिस्वास और उनके बाद ‘बोम्बे टोकीज़’ के सर्वेसर्वा
अशोक कुमार से हुई मुलाकात के चलते ‘मुकद्दर’
फ़िल्म में उन्हें सेकन्ड लीड रोल मिला। यहाँ से बम्बई में अभिनेता इफ़्तेख़ार का सफर
शुरु हुआ, जो अपनी अंत तक बरकरार रहा। वैसे इफ़्तेख़ार ने अलग अलग भूमिकाएं कीं हैं।
मगर सबसे ज्यादा पहचान उन्हें पुलिस अधिकारी के रूप में मिली थी और वो भी बी. आर. चोपडा
की ‘इत्तेफ़ाक’ फ़िल्म से सब से ज्यादा।
‘इ्त्तेफ़ाक’ राजेश खन्ना की आरंभिक फ़िल्म और कहानी में सस्पेन्स भरा था। ऐसे में जांच करने वाले पुलिस ओफिसर की भूमिका कितनी अहम हो जाती है। मगर ऐसा भी नहीं था कि इफ़्तेख़ार के लिए उस प्रकार की वह प्रथम थी। उन्होंने राजकपूर की ‘श्री ४२०’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में तथा ‘पिंजरे के पंछी’ वगैरह में वे पुलिस इन्स्पेक्टर बने थे। मगर ‘इत्तेफ़ाक’के बाद तो जैसे वर्दी इफ़्तेख़ार की दुसरी त्वचा बन चूकी थी।
फिर तो न सिर्फ पुलिस के अफसर की भूमिका में वे इतनी सारी फ़िल्मों में आये थे.... ‘इन्तकाम’, ‘जहोनी मेरा नाम’ ‘एलान’, ‘धी ट्रेइन’, ‘दाग’ ‘अपराध’, ‘लोफर’, ‘जीवन संग्राम’, ‘पथ्थर और पायल’, ‘बदला’, ‘मजबुर’, ‘खेल खेल में’, ‘आखरी दाव’, ‘साज़िश’, ‘चोरी मेरा काम’, ‘एक से बढकर एक’, ‘जानेमन’, ‘फ़कीरा’, ‘चांदी सोना’, ‘’पापी, ‘बेशरम’, ‘फांसी’, ‘खून का बदला खून’, ‘झुठा कहीं का’, ‘क्रोधी’, ‘डोन’, ‘मंगल पांडे’, ‘हादसा’, ‘महान’, ‘आवाज़’, ‘कानोन क्या करेगा’, ‘इन्किलाब’, ‘राम तेरा देश’, ‘युद्ध’, ‘गलियों का बादशाह’ इत्यादि इत्यादि। इन में से किसी में इफ़्तेख़ार इन्स्पेक्टर बने तो किसी में कमिश्नर। कहीं वे डीआइजी तो अन्य में आइजीपी!
पुलिस के अलावा भी
जब भी सख्त व्यक्तित्व वाले किरदार के लिए अभिनेता की आवश्यकता होती थी, इफ़्तेख़ार को
याद किया जाता था। इस लिए डोक्टर, वकील, जज, ठाकुर और आचार्य जैसे चरित्रों को उन्होंने
एक से अधिक बार बखुबी निभाया था। ‘दीवार’
में अमिताभ बच्चन को ‘लंबी रेस का घोडा’ कहने
वाले स्मगलर ‘दावर’ भी इफ़्तेख़ार ही थे। उन्होंने अंग्रेजी फ़िल्में ‘फार पेवेलियन’ और ‘थ्री हेडेड कोब्रा’ में भी काम किया था। महात्मा गांधीजी की हत्या को
केन्द्र में रखकर बनी फिल्म ‘फाइव पास्ट फाइव’
में गांधीजी बने थे। मगर सरकार को भय लगा कि उस फ़िल्म से गोडसे को ज्यादा महत्व मिलेगा;
इस लिए उसे रिलीज़ ही नहीं होने दिया था।
इफ़्तेख़ार के अपने काम
के प्रति निष्ठा का एक ही उदाहरण काफी होगा। गुलज़ार की फिल्म ‘अचानक’ की शुटिंग के दौरान एक दिन उनकी छोटी
बेटी के विधवा होने का समाचार उन्हें मिला, जिस की शादी को अभी महिना भी नहीं हुआ था।
फिर भी उन्होंने शुटिंग जारी रखा था। किसी तरह से गुलज़ार साहब तक समाचार पहुंचे और
उन्होंने इफ़्तेख़ार को घर भेजा! ऐसे निष्ठावान कलाकार इफ़्तेख़ार का १९९५ की चौथी मार्च
के दिन मधुमेह की बिमारी के चलते देहांत हो गया। मगर उनके अभिनय वाली सेंकडों फ़िल्मों
में तथा सिनेमा प्रेमी दर्शकों के दिलों में वे हमेशा जिन्दा ही हैं।
Sir,
ReplyDeleteGood time to start this and 100% agree with your first para.
I am happy that I will have 2 reads in a week.
Thank You
Nice Article Sir. As always. Please try to write more and publish more that we can get it more.
ReplyDeletePerfect Portrait of Iftekhar Sir. As you wrote in your article, that completely true, without any doubt that Police Uniform is another skin of Iftekhar. He will always remain in our heart.
ReplyDeletePlease please post more article. We are eager to read it.
sada, jahan me rahega ye policewala
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