अनवर हुसैन की पहचान संजय दत्त के मामा, सुनिलदत्त
के साले साहब या नरगीस के भाई या फिर अभिनेत्री ज़ाहिदा के चाचा जैसे कितने ही रिश्तों
से की जा सकती है। मगर वे सभी उस कलाकार के साथ अन्याय करने जैसी पहचान होगी। क्योंकि
अनवर हुसैन माता जदनबाई के पुत्र होने के अलावा एक ऐसे अभिनेता भी थे, जो सहनायक के
रूप में जितने अच्छे से सकारात्मक भूमिकाएं करते थे, उतने ही वे खलनायकी में माहिर
थे। याद करें दिलीप कुमार की श्रेष्ठतम फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ में ज़मीनदार अय्याश साला बने अनवर हुसैन का रूप दर्शकों को
कितना गुस्सा दिलाता था! अनवर हुसैन के अभिनय के कारण दिलीप कुमार का डाकु बनना ज्यादा
सही लगता है।
वही अनवर हुसैन देव आनंद की श्रेष्ठतम कृति ‘गाइड’ में उनके ड्रायवर दोस्त ‘गफ़ुर’ के
रोल में कितना सकारात्मक रोल निभा गए थे! ‘राजु गाइड’ से ‘राजु स्वामी’ बने अपने बिछडे
दोस्त से मिलकर जिस अंदाज़ में वे बेतहाशा रोते हैं और अंत में उपवास पर बैठे उसी मित्र
के स्वास्थ्य के लिए मंदिर में नमाज़ पढते, दुआ मांगते अनवर हुसैन भूले नहीं भूलाते।
उन्हीं अनवर को राजेश खन्ना की एक बेहतरीन फ़िल्म ‘बहारों के सपने’ में आशा पारेख के साथ “चुनरी
संभाल गोरी, उडी चली जाय रे....” गाते देखो तो अपनी बीवी से छुपकर नियमित शराब
पीनेवाले एक मौजीले पात्र में भी वे उतने ही जंचते थे।
मगर अनवर हुसैन हमेशा से चरित्र अभिनेता कहाँ थे?
अन्य चरित्र अभिनेताओं की तरह वे भी कभी हीरो थे! उन्हें चान्स भी दिया था ए.आर. कारदार
जैसे बडे निर्माता ने ‘संजोग’ में। उन दिनों अनवर ऑल इन्डिया रेडियो में बतौर उद्घोषक
काम करते थे। उनकी आवाज़ का दम देखकर, सॉरी.... सुनकर, कारदार साहबने अनवर को ‘संजोग’ का हीरो बनाया। परंतु, सिनेमा का
पर्दा अनवर के लिए नया नहीं था। वे बाल कलाकार के रूप में माता जदनबाई के कारण कुछ
फ़िल्मों में आ चुके थे। ‘संजोग’ उपरांत
भी दो-तीन फ़िल्में बतौर नायक आईं जरूर। मगर हीरो बनने के लिए चेहरा और विशेष तो टिकट
खिडकी पर तकदीर भी तो चाहिए! अनवर हुसैन के पास उस समय दोनों नहीं थे, जिसका सबुत ‘रंगमहल’ नामक फ़िल्म थी।
‘रंगमहल’ वो फ़िल्म थी, जिस में अनवर हुसैन ने पहली बार खलनायक बनना स्वीकार किया था। हीरो नहीं तो विलन ही सही! लेकिन जब आप की किस्मत साथ नहीं देती तब आपको सोने की खान से भी कोयला मिल सकता है। अनवर हुसैन को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली प्रथम फ़िल्म ‘रंगमहल’ भी जलकर कोयला हो गई। ‘रंगमहल’ की नेगेटिव लेबोरेटरी में आग लगने की वजह से जल गई। फ़िल्म आई ही नहीं। वरना ‘रंगमहल’ की नायिका भी तो सुरैया जैसी बडी अभिनेत्री थी। नसीब के सामने हथियार रखते हुए अनवर भोपाल चले गए।
‘रंगमहल’ वो फ़िल्म थी, जिस में अनवर हुसैन ने पहली बार खलनायक बनना स्वीकार किया था। हीरो नहीं तो विलन ही सही! लेकिन जब आप की किस्मत साथ नहीं देती तब आपको सोने की खान से भी कोयला मिल सकता है। अनवर हुसैन को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली प्रथम फ़िल्म ‘रंगमहल’ भी जलकर कोयला हो गई। ‘रंगमहल’ की नेगेटिव लेबोरेटरी में आग लगने की वजह से जल गई। फ़िल्म आई ही नहीं। वरना ‘रंगमहल’ की नायिका भी तो सुरैया जैसी बडी अभिनेत्री थी। नसीब के सामने हथियार रखते हुए अनवर भोपाल चले गए।
भोपाल में उन्होंने घी का व्यापार करना प्रारंभ किया।
पर नसीब ने उस में भी साथ नहीं दिया। उसे छोड कपडे का व्यवसाय किया तो वहाँ भी घाटा
आया। भोपाल में कमाना तो दूर की बात थी, अपनी जमा पूंजी को अनवर कम कर रहे थे। इस से
तो बम्बई अच्छा था कि अभिनेता के तौर पर पैसे तो लगाने नहीं पडते थे। जो भी मेहनताना
मिलता था, वो अपना होता था। फिर माता और भाई भी तो थे। वापिस आये मुंबई जहाँ उनके भाई
अखतर हुसैन ‘रोमियो जुलियट’ बना रहे थे। उसमें अनवर हुसैन को
लिया गया। मगर किन हालात में?
‘रोमियो
जुलियट’ में अंततः अनवर को मिली भूमिका
के लिए पहले अन्य अभिनेता याकुब को लिया गया था। परंतु, वे बीमार हो गए और एक्टर मज़हर
खान उस पात्र में साइन हुए। (ये ज़िन्नत अमान के पति नहीं, पुराने समय के अन्य कलाकार
मज़हर खान थे।) अब पलटती तकदीर का खेल देखिए कि ऐन वक्त पर शुटिंग के लिए मज़हर भी नहीं
आ पाये। परिणाम स्वरूप परिवार के लडके अनवर को अभिनेता का काम मिला। ‘रोमियो जुलियट’ में तलवारबाजी के भी द्दश्य
थे। अनवर ने उसकी बाकायदा तालीम ली और उन सीन्स
को भी बखुबी किया। नतीजा ये हुआ कि ‘रोमियो
जुलियट’ के लिए उस साल पत्रकारों की एक संस्था की तरफ से अनवर हुसैन को सम्मान
मिला।
‘रोमियो
जुलियट’ से अभिनय की यात्रा जो फिर से शुरु हुई वो अंत तक
बरकरार रही। उनके पात्रों में भी विविधता थी। ‘हमराज़’ में वे आर्मी के कैप्टन (महेन्द्र सिंग) बने थे, तो ‘नन्हा फरिश्ता’ में प्राण और अजीत के साथ
मिलकर नन्ही बच्ची को अगुवा करने वाले डाकु बने थे। ‘असली नकली’ में घर से नीकले अमीर देव आनंद को अपनी खोली में आसरा देने
वाले गरीब दोस्त भी अनवर थे।
उनकी फ़िल्मों में ‘रॉकी’, ‘नौकर’, ‘रात और दिन’, ‘अनोखी रात’, ‘आदमी और इन्सान’, ‘अन्नदाता’,
‘विक्टोरिया २०३’, ‘उपासना’, ‘बलिदान’, ‘यकीन’, ‘एक बेचारा’, ‘दस्तक’, ‘जैसे को तैसा’,
‘दोस्त’, ‘गद्दार’, ‘लोफर’, ‘झील के उस पार’, ‘प्यार की कहानी’, ‘ज़िन्दगी ज़िन्दगी’,
‘बिदाई’, ‘दुश्मन’, ‘रफ़ुचक्कर’, ‘काला आदमी’, ‘शंकर शंभु’, ‘महा चोर’, ‘चोरी
मेरा काम’, ‘चोर के घर चोर’, ‘शंकर दादा’, ‘गरम मसाला’, ‘बचपन’, ‘अनपढ’, ‘एक से बढकर
एक’, ‘लफंगे’, ‘गुरु हो जा शुरु’, ‘रिक्षावाला’, ‘प्रेमशास्त्र’, ‘अपना खून’, ‘हरफनमौला’,
‘राहगीर’, ‘प्रीतम’, ‘खामोशी’, ‘नई रोशनी’ इत्यादि इत्यादि।
फ़िल्मों के साथ साथ उनका संबंध सुनिल दत्त और नरगीस
की संस्था ‘अजंता आर्टस’ के साथ भी गहरा था। शायद सब को पता हो कि अनवर हुसैन और अखतर
हुसैन नरगीस के सौतेले भाई थे। जदनबाई की गायकी पर फ़िदा हो कर मोहनबाबु ने इंग्लेन्ड
जाकर डोकटर बनने का सपना छोडकर उस ‘गानेवाली’ से शादी करने की हिम्मत उन दिनों में
की थी। शादी के लिए मोहनबाबु ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम ‘अब्दुल रशीद’ रख दिया था
और उनके परिवारवालों ने मोहनबाबु से अपने को अलग कर दिया। नरगीस का असल नाम ‘फातिमा
अब्दुल रशीद’ इसी वजह से था।
नरगीस के लिए उनके दोनों सौतेले भाइओं में से अनवर
हुसैन का मेलजोल कितना अच्छा था ये सुनिल दत्त के साथ उनकी हुई शादी के समय भी पता
चला था। नरगीस की जीवनकथा लिखने वाले टी.जे.एस. ज्योर्ज के मुताबिक, जब नरगीस और सुनिल
दत्त ने आर्य समाज में सादगी से शादी कर ली, तब सबसे पहले वे दोनों हुसैन भाईओं से
मिलने गए थे। उस वक्त नाराज़ अख्तर हुसैन ने ‘देर रात हो गई है’ ये कहकर नवदंपति को
मिलने से इनकार कर दिया था। जब कि अनवर ने न सिर्फ आशीर्वाद दिया, बल्कि उनकी आंखें
खुशी के आंसुओं से भर गईं थीं।
अनवर हुसैन दत्त परिवार और ‘अजंता’ से इतने अच्छे
से जुडे थे कि उनके साथ जवानों के मनोरंजन के लिए सीमा पर भी जाते थे। इन स्टेज शो
में बहुधा वे कोमेडी करते थे। ऐसे एक सार्वजनिक शो में हमने उन्हें सुनिल दत्त से एक
फरमाईश बडे ही अनोखे अंदाज में करते हुए देखा था। उन्होंने क्या कहा था ये तो याद नहीं
है, मगर इतना जरूर याद है कि उपस्थित सारे लोग काफी देर तक हंसते रहे थे।
उनके जवाब में सुनिल दत्त ने भी उसी हंसी-खुशी के
महौल को आगे बढाते हुए कहा था, “मैं कैसे इनकार कर सकता हुँ.... एक तरफ जोरु का भाई,
दुसरी तरफ सारी खुदाई!” तभी चुटकी लेते हुए अनवर बोले “दत्त साहब, हमें तो बम्बई के
रोड पर आये दिन होती खुदाई के अलावा कोई खुदाई दिखती नहीं!” (आज हर तीसरे स्टेन्ड अप कमेडियन को इस लाइन को दोहराते
सुनते समय हर बार हमें तो अनवर हुसैन ही याद आते हैं।) इतने हसमुख इन्सान को व्यस्तता के उन दिनों में लकवा का हमला
हो गया। अंततः १९८८ की पहली जनवरी के दिन अनवर हुसैन का इन्तकाल हो गया। लेकिन अपनी
हर तरह की एक्टींग के बावजुद अपने पारिवारिक संबंधों की वजह से ज्यादा पहचाने जाते
अनवर हुसैन अपनी विविध भूमिकाओं से हम सिनेमा दर्शकों के बीच आज भी ज़िन्दा ही हैं।
[इस लेख के लिए सहायक सामग्री प्रदान करने के लिए वरिष्ठ इतिहासविद श्री हरीश रघुवंशी (सुरत) का हार्दिक धन्यवाद]
हाथ कंगन को आरसी क्या?
देखीए अनवर हुसैन को एक मस्ती भरे गाने में यहाँ....
आर.डी. बर्मन की एक बेमिसाल संगीत रचना में!Click on the picture bellow to see the performance!
[इस लेख के लिए सहायक सामग्री प्रदान करने के लिए वरिष्ठ इतिहासविद श्री हरीश रघुवंशी (सुरत) का हार्दिक धन्यवाद]
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