कर्णप्रिय संगीत, अर्थपूर्ण कविता और सुमधुर गायकी के पावन संगम
का वह समय..... 1960!
१९६० का साल वह था जब दिलीप कुमार की ‘मुगले आज़म’ से नौशाद, राजकपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ से शंकर जयकिशन और देव आनंद की ‘काला बाज़ार’ से एस.डी. बर्मन सर्वोच्च स्थान
के लिये स्पर्धा में थे. हर फिल्म के गाने कितने लोकप्रिय थे और आज भी है यह कोई कहने
की बात है क्या? आज भी “प्यार किया तो डरना
क्या?...” या फिर “ओ बसंती पवन पागल….”
अथवा तो “खोया खोया चांद खुला आसमां….”
सुनने पर वे पचास साल पुराने गाने कहां लगते हैं? मगर उस साल बिनाका गीतमाला की वार्षिक
संगीत स्पर्धा में ‘नंबर वन’ यानि अमीन सायानी की भाषा में कहें तो, ‘चोटी की पायदान’
पर बजने वाला गीत इन तीनों से अलग संगीतकार रोशन का था.
वह कितना बडा अपसेट था उन दिनों में; कि ‘बरसात की रात’ का रफी साहब का गाया शिर्षक गीत “ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात…” उस साल बिनाका में नंबर वन
हुआ था? उसी तरह से फिल्मफेर अवोर्ड में भी उन तीनों टोप स्टार्स की फिल्मों को पीछे
छोड कर मीना कुमारी और राजकुमार की फिल्म ‘दिल
अपना और प्रीत पराई’ के लिये शंकर जयकिशन विजेता हुए थे. फिल्मफेर पुरस्कारों में तब तक पार्श्व गायकों के लिये एक
ही अवोर्ड था. यानि उस सम्मान के लिये पुरुष और महिला सभी गायकों को स्पर्धा करनी पडती
थी. उस वर्ष लता जी के गाये “प्यार किया तो
डरना क्या?...” तथा “दिल अपना और प्रीत
पराई, किसने है ये रीत बनाई…” भी थे. मगर उन को कोई पुरस्कार नहीं मिला था. फिल्मफेर
की ट्रोफी महंमद रफी को ‘चौदहवीं का चांद’
के टाइटल गीत के लिये मिली थी!
१९६० वह साल था जब पार्श्व गायन के लिये सबसे बडी रकम चुकाई गइ थी
और वह भी रफी, लता, आशा, मुकेश या किशोर को नहीं पर शास्त्रीय संगीत के एक वरिष्ठ कलाकार
उस्ताद बडे गुलाम अली खां को. वह पूरी कहानी लंबी है. मगर सार कहें तो, उस्ताद जी को
‘मुगले आज़म’ के लिये “प्रेम जोगन बन के…” गाने का पुरस्कार पचीस
हज़ार रूपये चुकाया गया था! वह विक्रम आज तक नहीं टूटा है. क्यूं कि १९६० के २५ हज़ार
आज के शायद पचास लाख या एक करोड भी हो सकते हैं! इतनी राशि किस गायक कलाकार को मिली
होगी?
उस वर्ष १९६० में आई ‘छबीली’
का भी एक महत्व है. क्यूं कि उस में अभिनेत्री नूतन ने एक – दो नहीं ६ गाने गाये थे!
यह वही साल था जब राज कपूर की ‘श्रीमान सत्यवादी’
में चार गाने ‘गुलज़ार दिनावी’ ने लिखे थे. क्या यह अपने ‘आंधी’ और ‘परिचय’ वाले गुलज़ार
साहब थे? १९६० में आई ‘कोलेज गर्ल’ से
शंकर जयकिशन तथा उन के हमेशा के गीतकार हसरत जयपुरी तथा शैलेन्द्र की जोडी के बीच के
मतभेद सामने आये. क्यूं कि उस फिल्म के लिये पहली बार ‘एस.जे.’ के लिये किसी अन्य गीतकार
(राजीन्दर क्रिश्न) से गाने लिखवाये गये थे.
१९६० के गानों की बात करते समय ‘अनुराधा’ का उल्लेख खास तौर पर आवश्यक है. क्यूं कि हृषिकेश मुकरजी की इस फिल्म में पहली बार सितारवादक रविशंकर जी ने संगीत दिया था. उन्हों ने लता मंगेशकर के लिये बनाये गीत कैसे कैसे थे… “जाने कैसे सपनों में खो गईं अखियां…”, “कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियां…” और “हाये रे वो दिन क्यूं न आये…” मज़े की बात ये है कि लता जी के कारण ही रविशंकर जी फिर एक बार फिल्म का संगीत देने आये थे. उन्हों ने गुलज़ार के निर्देशन में बनी ‘मीरा’ का संगीत किन विशीष्ट परिस्थितियों में दिया था वह कौन नहीं जानता?
‘मीरा’ के लिये
पहले लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल तय हुए थे. मीरांबाई के भजन आधुनिक मीरां लता मंगेशकर
के अलावा कौन गा सकता है? यह सोच कर ‘एल. पी.’ ने जब उन से दरखास्त की, तब लता जी ने
इनकार कर दिया. क्यूं कि ‘मीरा भजन’ का उन का खुद का एल्बम ‘चला वाही देश’ बाज़ार में पहले से था. जब लता जी ने इनकार किया तो लक्ष्मी-प्यारे
भी हट गये और तब रविशंकर जी मैदान में आये. उन्हों ने वाणी जयराम से एक से एक बढिया
धूनों पर वही मीरा भजन दिये.
मगर १९६० में लता मंगेशकर के सिर्फ
‘अनुराधा’ के ही गीत नहीं, उन का तो वह
प्राइम टाइम था. कैसे कैसे गाने वे उन दिनों में गातीं थीं. उस वर्ष सलिल चौधरी के
निर्देशन में ‘परख’ फिल्म का गीत “ओ सजना… बरखा बहार आई…” भी उन्हें मिला था,
जिसे उन्हों ने अपने करियर के २५ सर्वोत्तम गानों की सूची में भी शामिल किया था. तो
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ का गीत “अजीब दास्तां है ये, कहां शुरु कहां खतम…” भी
उसी साल का है. उन्हें एक से एक अनोखे गाने देनेवाले मदन मोहन ने ‘बहाना’ में “जा रे बदरा बैरी जा…” भी दिया १९६० में. फिर रवि भी कहां पिछे थे? उन्हों
ने लता जी के लिये फिल्म ‘घूंघट’ में बनाया
“लागे ना मोरा जिया, सजना..”
लता जी की तरह ही १९६० में महंमद रफी
भी अपने पूरे निखार पर थे. जैसा कि पिछले हफ्ते यहां लिखा था, “ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात….”
और “चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो….”
जैसी पुरस्कार विजेता रचनाएं तो उस वर्ष में थी ही, साथ साथ दिलीप कुमार की फिल्म ‘कोहीनूर’ का “मधुबन में राधिका नाचे रे…” भी उसी वर्ष का नायाब हीरा था. उस गीत के
शास्त्रीय बोल और उस की अदायगी जाने कितने ही रीयालिटी शो में स्पर्धक आज भी गाते नज़र
आते हैं.
दिलीप कुमार की तरह देव आनंद के भी
पार्श्व गायक रफी साहब ही थे. भारत भूषण हो या जहोनी वोकर सभी के लिये महंमद रफी की
ही आवाज़ होती थी. इन सब अभिनेताओं के गीतों के साथ वे न्याय भी कितना अच्छा करते थे? रफी साहब को ‘काला बाज़ार’ का गीत “अपनी तो
हर आह इक तुफान है….” या फिर “रिम झिम के तराने लेके आई बरसात….” गाते
सुनने पर यही लगेगा कि देव आनंद खुद गा रहे हैं. जब यही गायक उस वर्ष देव आनंद की ही
फिल्म ‘जाली नोट’ में आया कोमेडी गाना
“छुरी बन कांटा बन, ओ माय सन, सब कुछ बन किसी
का चमचा नहीं बन…” गाते हैं, तब सुनते ही पता चल जाता है कि यह किसी हास्य कलाकार
(ओम प्रकाश) पर फिल्माया गया गीत है.
तो महंमद रफी के चाहनेवाले परदेशों
में भी उन की जिन गज़लों को बार बार सुनना आज भी पसंद करते हैं वह ‘लाल किला’ की बहादुरशाह ज़फर की लिखी दोनों
रचनाओं के तो क्या कहने? मसलन एस. एन. त्रिपाठी के निर्देशन में बने दो नग्मे, “लगता नहीं है दिल मेरा उजडे दयार में…” और “न किसी की आंख का नूर हुं….” उन दोनों में शायर मिजाज आखिरी मुगल की कशीश
उतनी ही उभर कर आती है, जितना कि कोमेडी गाने में हास्य रस. ‘मुगले आज़म’ हो या ‘चौदहवीं चांद’
मुस्लिम कहानीयों को लेकर बननेवाली फिल्मों के चलते १९६० में कव्वालीयां भी काफी आईं.
जैसे ‘मुगले आज़म’ में लता और शमशाद बेगम की टक्कर की कव्वाली “तेरी मेहफिल में किस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे….”
या फिर ‘बरसात की रात’ में रोशन और साहिर
लुधियानवी ने मिलकर जो कव्वाली बनाई उसे ही ले लिजीये. उन दिनों के फिल्मकारों और गीतकार,
संगीतकार तथा गायकों जैसे सभी सर्जक कलाकारों के भरोसे की दाद देनी पडेगी कि वे सब
मिलकर आठ दस मिनट लंबा गाना बनाते थे. मज़े की बात यह थी कि दर्शक इन से कभी बोर नहीं
होते थे. बल्कि, कई बार तो “ना तो कारवां की
तलाश है, ना तो हमसफर की तलाश है, तेरे शौके खना खराब को तेरी रहगुजर की तलाश है…”
में रचे शब्दों के खेल का पूरा लुत्फ उठाने वे बार बार आते थे.
‘कव्वालीयों की महारानी’ कही जानेवाली
उस प्रलंब कविता में शायर साहिर अपनी सर्जनात्मकता की चरम सीमा पर थे. एक एक पंक्ति
का विश्लेषण करने से उस काव्य की ऊंचाई और गहराई दोनों का पता चल सकता है. उस में
‘प्रेम’ या तो ‘लव’ या फिर ‘मोहब्बत’ को कैसे कैसे याद किया गया है? शुरु में तो वे
“बहूत कठिन है डगर पनघट की, अब मैं क्या भर
लाउं जमना से मटकी…” के खेल करते करते जब उसे “ये इश्क इश्क है…” के क्लायमेक्स तक ले जाते हैं तब देखीये तो साहिर की
कलम से यह सार निकलता है…..
इश्क
सरमद, इश्क ही मन्सूर है,
इश्क
मुसा, इश्क कोहे-तुर है,
खाक
को बुत और बुत को देवता करता है इश्क
इन्तेहां
ये है कि बन्दे को खुदा करता है इश्क!
‘बरसात
की रात’ में ही तो सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट की जुगल बंदी “गरजत बरसत सावन आयो रे…” में थी. असल में
अगर ‘बरसात की रात’ के गानों के गायकों
की सूची देखें तब भी कितनी सारी प्रतिभाओं के नाम मिलते हैं? रफी, लता, आशा भोंसले,
मन्नाडे तो थे ही, उस में सुधा मल्होत्रा, एस डी बातिश और बलबीर जैसे गायक भी थे. सिर्फ
१९६० के ही बरस में कितना कुछ? अगर यह कम लगता हो तो मुकेश का अविस्मरणीय गाना “सारंगा तेरी याद में, नैन हुए बेचैन…” भी
१९६० में था. उसे अनु मलिक के पिताजी सरदार मलिक ने कम्पोज़ किया था.
लेकिन उस साल क्लासिकल गीतों के चाहने वाले आश्चर्य चकित रह गये, जब ओ.पी. नैयर से ‘कल्पना’ में मिला मन्नाडे और रफी की जुगलबंदी का गान “तु है मेरा प्रेम देवता…”. वह भी था ८ मिनट लंबा गाना! मगर दक्षिण भारत की दो बहनें पद्मिनी और रागिनी की नृत्य स्पर्धा से समय कहां पसार हो जाता था, पता ही नहीं चलता था. एक ही बरस में कितना सोना बरसा था संगीत के आसमान से कि आज पचास साल से भी ज्यादा होने पर भी उस सोने पर ज़ंग नहीं लगी है!
ऐसा मुकेश और राज कपूर की जोडी ने ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में एक से एक बढिया गाने दिये थे. मगर क्या
आप जानते हैं कि जब वह फिल्म शुरु हुई तब राज साहब ने उस में एक भी गाना नहीं रखना
चाहा था? डाकु की कहानी में गाने कहां डालेंगे? लेकिन एक बार तय किया तब कैसे कैसे
गाने नीकले संगीत गंगा से… “ओ बसंती पवन पागल…”,
“मेरा नाम राजु…”, “प्यार कर ले नहीं तो फांसी चढ जायेगा…”, “है आग हमारे सीने में…” “आ अब लौट चलें…”, और टाइटल गीत “होंटों पे सच्चाई रहती है…”
इन में से “आ अब लौट चलें…” गीत में शैलेन्द्र की लिखी
इन पंक्तियों को सुन कर केनेडा, अमरिका, इंग्लेन्ड जैसे देशों में बसे भारतीय लोगों
की आंखें आज भी भर आतीं है… “लाख लुभाये महल
पराये, अपना घर फिर अपना घर है…” वह समय था एक ऐसी स्पर्धा का जिस में अच्छी अर्थपूर्ण
कविता, कर्णप्रिय धूनों वाला संगीत और कान ही नहीं आत्मा तक को छु जानेवाली सुमधुर
गायकी का त्रिवेणी संगम होता था.
और अंत में...
इतने अच्छे
अच्छे गानों के वर्ष १९६० में ‘कानून’ भी ही आई थी, जिस में एक भी गाना नहीं था.
सोचो ठाकुर!
Thakur,Google kar sakhte hain aap ke quetion ke liye...? :)
ReplyDelete1960. Never knew about that year like this. Though I'm much later than that year but always loved the era of sixties and always thought that sixties was the best. Why? I knew today. Thanks Salilji.
ReplyDeleteयह सोच कर ‘एल. पी.’ ने जब उन से दरखास्त की, तब लता जी ने इनकार कर दिया. क्यूं कि ‘मीरा भजन’ का उन का खुद का एल्बम ‘चला वाही देश’ बाज़ार में पहले से था.
ReplyDeleteI did not know that even those days singers used to release private albums...nice information and as usual interesting blog post...:)
And equally amazed to see your command over Hindi language also.:)