Thursday, November 28, 2013

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं...... निरुपा राय




अमिताभ की सब से लोकप्रिय सिने-‘मां’: निरूपा राय!

“जाओ, पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे बाप से साइन लिया था....” याद है न सलीम-जावेद के ये चोटदार संवाद जिसने अमिताभ बच्चन को अपने करियर में एक नई ऊंचाई बक्षी थी? मगर उन लेखकों का कमाल ये था कि अमिताभ की मां के रूप में सामने खडी निरूपा राय को भी उतने ही सशक्त संवाद दिये थे। निरूपा जी जवाब में कहतीं हैं कि, “वो आदमी कौन था, जिसने तुम्हारे हाथ पे लिख दिया था कि तुम्हारा बाप चोर है? कोई नहीं... मगर तु तो मेरा अपना बेटा था... मेरा अपना खुन?... तुने अपनी मां के माथे पे ये कैसे लिख दिया कि उसका बेटा एक चोर है?” हिन्दी सिनेमा के इतिहास में रचे गए मां-बेटे के सबसे बेहतरिन द्दश्यों में से एक उस सीन का अंत  जिस अंदाज में निरूपा जी करतीं हैं, वो कौन भुला होगा? “बडा सौदागर बन गया है, बेटा.... मगर तु अभी इतना अमीर नहीं हुआ कि अपनी मां को खरीद सके!”

सलिम-जावेद के अत्यंत बढिया उन संवादों को और निरुपा जी की अदायगी को याद करते हुए आज भी रोंगटे खडे हो जाते हैं। मगर आप जानते हैं इतनी सशक्त भूमिका के लिए भी निरुपा रोय को फ़िल्मफ़ेयर का सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार उस साल नहीं मिला था! इतना ही नहीं करीब ४५ साल तक हिन्दी और गुजराती सिनेमा प्रेमीओं का मनोरंजन करनेवाली इस अभिनेत्री को सरकार ने भी कोई सम्मान कहाँ दिया था? उनके अभिनय में कुछ तो बात होगी कि फ़िल्मफ़ेयर का सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार वे तीन तीन बार जीती थी। ऐसी एक भावप्रवण अदाकारा की हैसियत से भी किसी ‘पद्म’ पुरस्कार का उनका हक बनता था। सराहने वाली बात ये थी कि इतनी ऊंचाई तक एक ऐसी शादीशुदा गुजराती महिला पहुंची थी, जिसने फ़िल्मों में आने से पहले सिनेमा तो छोडो कभी नाटक तक नहीं देखा था! 



शादी करके जब वे ससुराल आईं तब पता चला कि उनके पति किशोरचन्द्र को अभिनेता बनना था। एक गुजराती फ़िल्म के लिए मुख्य अभिनेता का विज्ञापन देख किशोरभाई ने अपना उम्मीदवारीपत्र भेजा। जब साक्षात्कार के लिए बम्बई बुलाया, तो गुजरात के बलसाड के किशोर अपने साथ अपनी नई नवेली दुलहन ‘कोकीला’ को भी ले गए। जी हां, निरुपाजी का मूल नाम ‘कोकीला चौहाण’ था, जो शादी के बाद ‘कोकीला बलसारा’ हुआ था। पति को तो फ़िल्मवालों ने पसंद नहीं किया, मगर मासुम दिखती पत्नी को ‘राणकदेवी’ नामक उस गुजराती फ़िल्म की नायिका का रोल ओफर हुआ और राशनिंग इन्स्पेक्टर पति की इच्छा का सम्मान करते हुए कोकीला ने हामी भर दी। मगर निरुपा जी के पिताजी रेल्वे में नौकरी करते थे। उन्हें और मायके वालों को ये कदम ठीक नहीं लगा। क्योंकि ’४० के दशक में यानि आज़ादी से पहले के ज़माने में महिलाओं का सिनेमा में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। इस लिए, कोकीला से उनके मायके वालों ने उनसे सारे संबंध तोड दिये।

मगर किस्मत का खेल देखीए कि ‘राणकदेवी’ में नायिका कोई और बनी, जब कि कोकीला के हिस्से छोटी सी भूमिका ही आई। मगर फायदा नाम का हो गया। निर्माता व्यास जी ने ‘कोकीला बलसारा’ को ‘निरूपा रोय’ जैसा बंगाली नाम दे दिया था। अब वापिस जाने का सवाल नहीं था। उन्हें दुसरी गुजराती फ़िल्म रणजीत स्टुडियो की ‘गुणसुंदरी’ मिली और वह १९४८ की एक हिट फ़िल्म साबित हुई! पर मज़े की बात ये हुई कि के रणजीत स्टुडियो  ने हिन्दी फ़िल्म ‘लाखों में एक’ के लिए भी उन्हें लिया था और वह ‘गुणसुंदरी’ से पहले रिलीज़ हुई। वह समय था धार्मिक-पौराणिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों का और शादीशुदा महिला की हैसियत से निरुपा जी को ऐसी भूमिकाएं करना ज्यादा अनुकूल था। उनके संयमशील स्वभाव के कारण वे उन फ़िल्मों का अभिन्न हिस्सा हो गई। अब दोनों तरफ उनका सितारा तेज होता गया।

एक तरफ गुजराती फ़िल्मों में वे सामाजिक नायिका थीं, तो हिन्दी में ‘हर हर महादेव’ में भगवान शिव की ‘पार्वती’ बनती। उनकी फ़िल्मों में नायक महिपाल, त्रिलोक कपूर और शाहु मोडक जैसे अभिनेता होते थे। वे कहीं ‘सीता’ तो कहीं ‘सावित्री’ और कहीं ‘दमयंति’ बनतीं। उस दौर की फ़िल्मों के नाम से ही पता चलता है कि मुख्य धारा के बडे सितारों वाली पिक्चरों की नायिकाएं भले ही मधुबाला, मीनाकुमारी और नरगीस होती थी; परंतु धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों के भी स्टार होते थे, जिन में निरूपा जी भी एक थी। निरुपा जी ने मई १९९३ में ‘स्टार एन्ड स्टाइल’ पत्रिका को दिये एक इन्टरव्यु में बताया था कि उन दिनों में अभिनेता अभिनेत्री स्टुडियो की नौकरी करते थे। वे और मधुबाला साथ ही लोकल ट्रेन में आते जाते थे। स्टेशन से स्टुडियो दोनों साथ जाते थे!


मधुबाला तथा अन्य हिरोइनों की तरह निरुपा राय भी एक लोकप्रिय अभिनेत्री थी।   किसी भी नायिका की लोकप्रियता का अंदाजा उन दिनों ‘लक्स’ साबुन के विज्ञापन से आता था। वो दिन ऐसे थे कि जब तक कि आप ‘लक्स’ ब्युटी नहीं बनती, आप टॉप ग्रेड की हिरोइन नहीं गिनी जाती थी। एक तरह से उस इश्तहार में आना किसी एवार्ड से कम नहीं था। निरुपा जी ‘लक्स ब्युटी’ भी बनी। इसी तरह से जब वे कार्लोवी वारी फेस्टीवल में हिस्सा लेने गईं, तब राजकपूर तथा बलराज साहनी के साथ उनकी तस्वीर का भी एक ऐयरलाइन ने अपने विज्ञापन में उपयोग किया था। यह भी निरुपाजी की लोकप्रियता किस दरज्जे की थी, उसका प्रमाण था।  


निरुपा राय की फ़िल्मों की सूची में ‘नाग पंचमी’,‘सति रोहिणी’, ‘शिव कन्या’, ‘चंडी पूजा’, ‘अमरसिंह राठौड’, ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’, ‘कवि कालीदास’, ‘रानी रुपमति’, ‘वीर दुर्गादास’, ‘रजिया सुलतान’,  ‘शिव सीता अनसूया’, ‘मंगलफेरा’ (गुजराती), ‘वीर भीमसेन’, ‘गाडा नो बेल’ (गुजराती),  ‘दसावतार’, ‘राजरतन’, ‘शुक रंभा’, ‘राजरानी दमयंति’, ‘शिव शक्ति’, ‘जय महाकाली’, ‘श्री गणेश विवाह’, ‘बजरंग बली’, ‘राम हनुमान युद्ध’, ‘नाग मणी’, ‘लक्ष्मी पूजा’, ‘कृष्णा सुदामा’, ‘सति नाग कन्या’, ‘राज दरबार’ के साथ साथ ‘हमारी मंज़िल’, ‘भाग्यवान’, ‘धर्मपत्नी’, ‘कंगन’ ‘दो रोटी’, ‘चालबाज़’, ‘जनम जनम के फेरे’ जैसी फ़िल्में भी थी। उन में भी देव आनंद की ‘मुनीमजी’ का अनुभव निरुपा जी को बहुत कुछ सिखा गया। खास तो ये कि किसी एक वक्त पर निराश करने वाले प्रसंग के पीछे भी कुदरत की किसी बडी योजना का  हाथ होता है।
‘मुनीमजी’ में उन्हें कहा गया था कि उनका रोल एक स्त्री के जीवन की सभी अवस्थाओं का था। मगर जब फ़िल्म बननी शुरु हुई तो नायिका के तौर पर नलिनी जयवंत को लिया गया। निरुपा जी हताश हुई। मगर उनको मिले ‘मालती’ के पात्र को अभिनित करने में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी। अपने सामने आई आफत को अवसर में पलटने का निश्चय कर काम किया था। परंतु, रिलीज़ हुई फ़िल्म से उनके जवानी के समय के काफी सीन्स काट दिये गये थे और नोन ग्लेमरस पिरीयड को ज्यादा रखा गया था। उस समय निरुपा जी निरश हुई। पर अंततः परिणाम क्या हुआ, जानते हैं? उस वर्ष के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में निरुपा राय ने ‘बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस’ का एवार्ड जीत लिया और शायद उसी रोल की वजह से बिमल राय की नजर उन पर पडी! 

इस लिए ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि निरुपा जी को मुख्यधारा में सबसे बडा ब्रेक मिला बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ से। उस में किसान शंभु महातो बने बलराज साहनी की पत्नी पार्वती (‘पारो’) की भूमिका में इन्टरनेशनल स्तर पर चमकने का मौका मिला। जब ‘आवारा’ और ‘दो बीघा ज़मीन’ रुस फेस्टीवल में गई थी, तब राज कपूर और नरगीस के साथ निरूपा राय भी थी। उस फ़िल्म की शूटिंग के पहले दिन धार्मिक फ़िल्मों की ‘पार्वती’ की तरह अच्छा खासा मेक अप लगाकर वे सेट पर आईं। तब बिमल दा ने कहा ये सब उतार दो और सीधी सादी महिला बन जाओ। तब से जो सीधी सादी पारिवारिक औरत की भूमिकाएं मिलना शुरु हुई तो उस से मुख्यधारा की नायिका के बदले भाभी, बडी बहन और मां की चरित्र भूमिकाओं के लिए वे बलराज साहनी और अशोक कुमार के साथ भी विचाराधीन होने लगीं।

निरूपा राय ने बलराज साहनी और अशोक कुमार इन दोनों सशक्त अभिनेताओं के साथ करीब १५-१५ फ़िल्में करने से सोश्यल फ़िल्मों में भी अब एक विशीष्ट जगह बना ली थी। फिर भी उनकी अभिनय यात्रा में सबसे बडा बदलाव आया ‘दीवार’ से! ‘दीवार’ एक तरह से देखा जाय तो ‘मदर इन्डिया’ के वार्ता तत्व के  आधार पर ‘माता’ को केन्द्र में रखकर लिखी कहानी थी। उस में मां का पात्र अत्यंत महत्वपूर्ण था। परंतु, पता नहीं किस वजह से वैजयन्तिमाला जैसी अभिनेत्री ने उस भूमिका के लिए इनकार कर दिया और पर्दे पर अमिताभ की माता का रोल निरुपा जी को मिला। ‘दीवार’ से शुरु हुई उनकी दुसरी इनींग्स में भी निरुपा राय उतनी ही सफल रहीं जितनी की पहली में। उसकी और अन्य बातें करेंगे.... हमलोग... अगले हफ्ते!




तीन पुरस्कार जीतने वाली प्रथम सहायक अभिनेत्री!


(पिछले हफ्ते से आगे)


निरुपा राय को मिला ‘दीवार’ का रोल वैजयन्तिमाला ने इनकार किया, उस के पीछे एक कारण ये भी था कि उस में अमिताभ के अलावा शशि कपूर की भी माता बनना था। अब शशिबाबा के बडे भाई शम्मी कपूर की वे अभी चार साल पहले आई फ़िल्म ‘प्रिन्स’ में नायिका थीं। जब ‘दीवार’ का निर्माण आरंभ हुआ तब बतौर हिरोइन उनकी ‘गंवार’ को आये अभी दो-तीन साल ही हुए थे। तब यह भूमिका निरुपा राय को ऑफर हुई और उनके लिए ‘दीवार’ अपने करियर की नई ऊंचाई तय करने में सबसे बडी सहायक बनी। मगर इतनी सशक्त भूमिका और इतनी सफल फ़िल्म होने के बावजूद ‘दीवार’ के लिए निरुपाजी को सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार उस साल नहीं मिला था, वर्ना फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड्स में वे अकेली ऐसी अभिनेत्री होतीं, जिन्होंने चार बार यह सम्मान प्राप्त किया हो।

अभी भी ‘बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस’ का पुरस्कार तीन बार प्राप्त करने वाली प्रथम अभिनेत्री का कीर्तिमान तो निरुपा राय के नाम पर ही है। उन्हें पहली बार यह सम्मान १९५६ में ‘मुनिमजी’ के लिए मिला था। उस के बाद ’६२ में ‘छाया’ फिल्म में ‘आया मनोरमा’ के रोल के लिए वे इसी एवार्ड से पुरस्कृत हुईं। जब कि ’६५ की फ़िल्म ‘शेहनाई’ के लिए उन्हें फिर एक बार ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री’ का एवार्ड मिला। उनके बाद फ़रीदा जलाल, जया बच्चन और रानी मुकरजी ने भी यही सिद्धी प्राप्त की है। मगर तीन बार ये एवार्ड जीतने वाली ‘प्रथम’ अभिनेत्री तो निरुपा जी ही थी।

इन पुरस्कारों का विस्तार से उल्लेख इस लिए भी आवश्यक है, कि सामान्यतः हमारे यहाँ ऐसे कीर्तिमान बहुधा नायक नायिकाओं के होते आये हैं। अव्वल तो चरित्र कलाकारों को अपनी अभिनय प्रतिभा दर्शाने के इतने मौके भी नहीं मिलते। फिर आजकल की फ़िल्मों में ‘बहन’ या ‘भाभी’ अथवा ‘माँ’ का भी इतना बडा कोई रोल ही नहीं रहा है। एक तरह से कहें तो ऐसी भूमिकाएं करने वाले कलाकार आसानी से हाशिये में चले जा सकते हैं। ऐसे में निरुपा जी जैसी अभिनेत्री का योगदान ज्यादा समजने के लिए इन एवार्ड्स के हवाले से भी बात करनी आवश्यक थी।

दीवार’ के लिए यश चोप्रा ने निरुपा जी को साइन किया उस से पहले ‘माँ’ के स्वरूप में उनके लिए ‘राजा और रंक’ में वो यादगार गाना भी आ चूका था, “तु कितनी अच्छी है, तु कितनी भोली है, ओ माँ...”! तो ‘लाडला’ में उस से विपरित भावनाओं वाला यह गाना भी उन्होंने अपने ही पात्र को संबोधित करते हुए गाया था, “कौन तुझको मां कहेगा, तु किसी की मां नहीं....”। सिर्फ गानों के संदर्भ से देखें तो भी निरुपा राय ने नायिका, सहनायिका और चरित्र अभिनेत्री इन तीनों ही रूप में पर्दे पर कितने अविस्मरणीय गाने अभिनित किये थे! अगर कुछ को ही याद करें तो.... सब से पहले स्मृति में दस्तक देता है, ‘रानी रुपमती’ का वो सदाबहार गाना, “आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं....”। 


इसी तरह से ‘आसरा’ के शिर्षक गीत “मेरे सुने जीवन का आसरा है तु, कौन कहता है बेआसरा है तु....” को भी निरुपा जी ने अभिनित किया था। तो ‘रझिया सुलताना’ में ५० के दशक के हिन्दी फ़िल्मसंगीत के अनमोल रोमेन्टिक सोंग “ढलती जाये रात, कह ले दिल की बात...” में भी निरूपा राय नायिका के तौर पर जयराज के साथ थीं। परंतु, क्या आपको पता है कि एक ज़माने में धूम मचाने वाला ‘जनम जनम के फेरे’ फ़िल्म का गीत “जरा सामने तो आओ छलिये, छुप छुप छलने में क्या राज़ है, युं छुप ना सकेगा परमात्मा, मेरी आत्मा की ये आवाज़ है...” पर्दे पर निरुपा राय ने भी गाया था? 


निरुपा जी ने जिस फ़िल्म से सामाजिक फ़िल्मों में भी अपना अलग स्थान बनाया था, वो ‘गृहस्थी’ में घर परिवार के लिए बलिदान देने वाली स्त्री के उनके पात्र के लिए लिखा गया रफ़ी साहब की आवाज़ का ये गीत, “अगर संसार में औरत न होती, तो इन्सानों की ये इज़्ज़त न होती....”! माँ की भूमिका में निरुपा जी को संबोधित एक गीत १९७१ में आये ‘संसार’ पिक्चर का था, “मां तु आंसु पोंछ ले अपने, रोने की कोई बात नहीं, जब तक तेरे साथ हुं मैं, मत सोच के कोई साथ नहीं...”। 


बच्चों की माता की भूमिका में उन्होंने १९७० की फ़िल्म ‘घर घर की कहानी’ में एक भजन गाया था, “जय नंदलाला, जय जय गोपाला...” जो कि एक तरह से भगवान श्री कृष्ण के नामों का गुणगान था। इस गीत की एक विशेष बात की चर्चा उन दिनों में काफी हुई थी। क्योंकि उसे लिखा था, हसरत जयपुरी ने जो खुद मुस्लिम थे। मगर किसी हिन्दु भक्त की तरह कन्हैया के कितने ही नामों को उन्होंने अपनी इस रचना में बुन लिया था।
हसरत साहब की इस पवित्र कविता का लुत्फ़ लेने के लिए सिर्फ पहली दो पंक्तियां ही सुनिये, “जय नंदलाला, जय जय गोपाला. माधव मोहन मुकुन्द मुरारी, देवकी नंदन किशन कन्हाई, जुगलकिशोर श्याम गिरधारी...” आज की पीढी की दिलचस्पी की एक बात ये भी है कि इस फ़िल्म में निरुपा जी के तीन संतानो में से एक बाल कलाकार ‘बेबी सोनिया’ थी, जो आज के सुपर स्टार रणबीर कपूर की माताजी नीतु कपूर हैं और इस गीत में वे भी पर्दे पर निरुपा राय का साथ देती है। 

परंतु, ‘दीवार’ आते ही छोटे बच्चों की मम्मी से अब वे बडे बेटों की माता के रोल में नियमित आने लगीं। खासकर अमिताभ बच्चन के लिए तो वे तेजी बच्चन की तरह ही हो गईं। क्योंकि दिन में शूटिंग पर अमिताभ की माताजी निरुपा राय लगभग हर तीसरी फ़िल्म में बनतीं थीं। अमिताभ जी की ‘अमर अकबर एन्थनी’ में वे उनके साथ साथ विनोद खन्ना और रीशी कपूर की भी माता थीं। इतना ही नहीं, पर्दे पर नामावली आते समय मनमोहन देसाई ने तीनों बेटों को एक साथ जिन्हें खून देते दर्शाया था वे भी निरूपा जी ही थीं। इसी तरह से बच्चन साहब की ‘मर्द’ हो या ‘सुहाग’ कि फिर ‘मुकद्दर का सिकन्दर’, इन सभी में उनकी माता की भूमिका में निरुपा राय ही थी। ‘खून पसीना’ से ‘गंगा जमुना सरस्वति’ और १९९० में आई ‘लाल बादशाह’ में  अमित जी की मां तो निरुपा जी ही थी। 

सिर्फ अमिताभ ही क्यों कितने सारे स्टार्स और सुपर स्टार्स की फ़िल्मों का हिस्सा निरुपा राय रही थी। दिलीप कुमार की ‘राम और श्याम’ हो या मनोजकुमार की ‘क्रान्ति’ तथा ‘पूरब और पश्चिम’, धर्मेन्द्र की ‘आया सावन झुमके’ या राजेश खन्ना की ‘रोटी’ इन सभी में निरुपा जी थी। चरित्र अभिनेत्री के रूप में उनकी फ़िल्मों में ‘अभिनेत्री’, ‘आपबीती’, ‘जवानी दीवानी’, ‘आंसु बन गए फूल’, ‘प्यार का मौसम’, ‘ज़हरिला इन्सान’, ‘मनचली’, ‘तीसरी आंख’, ‘लूटमार’, ‘बेताब’, ‘कच्चे धागे’, ‘आइना’, ‘गिरफ़्तार’, ‘मां’, ‘अनुरोध’, ‘जवां मोहब्बत’, ‘लोकेट’, ‘छोटी बहु’, ‘आन मिलो सजना’ इत्यादि शामिल हैं।


परंतु, बढती उम्र के साथ काम घटता गया। १९९९ के बाद उनकी फ़िल्में आना बंद हो गई। अभिनय का इतना लंबा और फलदायी सफर और वो भी उस महिला का जिसने बचपन में ज्यादा शिक्षा भी नहीं पाई थी। जो शादी करके फ़िल्मों में आईं फिर भी जिन्होंने नायिका की कितनी ही भूमिकाएं की। जिनका सहअभिनेत्री का कार्यकाल भी इतना ही दमदार रहा। जो ‘मां’ की चरित्र भूमिकाओं के लिए एक मिसाल बनी थी। मगर इतने सारे योगदान के बावजुद उन्हें भारत सरकार ने तो कोई सम्मान देना उचित नहीं समज़ा; परंतु ‘फ़िल्मफ़ेयर’ ने अपनी इस तीन बार ट्रोफी जीतने वाली अदाकारा को ‘लाइफटाइम अचिवमेन्ट’ एवार्ड से २००४ में सम्मानित जरूर किया।

निरुपाजी शायद ऐसे ही किसी सम्मान की राह देख रही होंगी। क्योंकि उसी वर्ष अक्तुबर की १३ तारीख को ह्रदयरोग के हमले की वजह से ७२ साल की उम्र में निरुपा राय का देहांत हो गया। परंतु, उनके अभिनय से निरुपा जी हमारे बीच आज भी ज़िन्दा ही हैं।

 




















Saturday, November 23, 2013

ફિલમની ચિલમ...... ૨૪ નવેંબર ૨૦૧૩

જુઓ, (રામ) ‘લીલા’  રેકોર્ડબુકમાં જઈ રહી છે!




બૉક્સ ઑફિસનાં કલેક્શનમાં સો કરોડ લાવવાની કોઇ નવાઇ રહી ના હોઇ હવે તો ‘શેઠ આવ્યા, તો નાખો વખારે’ વાળો ઘાટ છે! તેથી એવી હીટ ફિલ્મ સાથે સંકળાયેલા સૌએ હવે ૧૦૦ કરોડની રકમ આસપાસનો કોઇ નવો ઍંગલ બતાવીને જુદી જ જાતનો વિક્રમ કરી બતાવવાનો રહે છે. મઝા એ છે કે દરેક વખતે કશોક તો નવો રેકોર્ડ થાય જ છે! જેમ કે ‘ક્રિશ થ્રી’ એ ૨૨૮ કરોડ પંદર દિવસમાં કરીને નવો ઝંડો રોપ્યો; તો ‘રામલીલા’ માટે એવું શોધાયું છે કે દિવાળી કે હોળી, ઇદ કે ક્રિસ્મસ જેવો કોઇ તહેવાર ના હોય છતાં પહેલા પાંચ દિવસમાં ૭૦ કરોડનું રેકોર્ડ કલેક્શન થયું છે અને વિદેશોમાં તો એનો વકરો ‘ક્રિશ-થ્રી’ના પ્રથમ વીકએન્ડના કલેક્શન કરતાં પણ વધારે થયો છે!

રામલીલા’નું નવું નામ ‘ગોલીયોં કી રાસલીલા રામલીલા’ પડ્યું હોવા છતાં ટ્વીટરના ૧૪૦ કેરેક્ટરના આ જમાનામાં સૌએ તેનું મૂળ નામ જ પકડી રાખ્યું છે અને જે રીતે અવનવા વિક્રમ એ સર્જી રહ્યું છે એ જોતાં મનહર ઉધાસે ગાયેલી આસિમ રાંદેરીની નઝમની ધ્રુવ પંક્તિને સહેજ બદલીને કહી શકાય કે “જુઓ, ‘લીલા’ રેકોર્ડબુકમાં જઈ રહી છે’! ફિલ્મમાં ‘લીલા’ બનતી દીપિકા પાદુકોણ ઉપર સૌ વાજબી રીતે જ સમરકંદ બુખારા ઓવારી રહ્યા છે. પણ તેમાં અમિતાભ બચ્ચને તો જાહેર અને ખાનગી બેઉ રીતે વરસીને દીપિકાને લોટરી લગાડી દીધી. બચ્ચનદાદાએ ‘લીલા’ને રાજીપો કરવા ફુલોનો ગુલદસ્તો અને હસ્તલિખિત નોટ તો મોકલી જ; સાથે સાથે એમ પણ જાહેર કર્યું કે દીપિકાની એક્ટિંગ એટલી અસરકારક લાગી કે તેમણે ૨૪ કલાકમાં ત્રણ વાર એ પિક્ચર જોયું. (‘રામ ઔર શ્યામ’ના શિર્ષક ગીત “રામ કી લીલા રંગ લાઇ” ને સંજય લીલા ભણશાળીએ  “લીલા કી લીલા રંગ લાઇ” ગાવું જોઇએ!)

જો કે એ જ દિવસોમાં અમિતાભ બચ્ચનને તાવ આવ્યાના પણ સમાચાર હતા. તેથી કેટલાક મજાકમાં તેને કમળાના ‘પીલા બુખાર’ જેવો આ ‘લીલા બુખાર’ પણ કહે છે. અમિતજીને ‘કેબીસી’ની આ સિઝનમાં જોનારા કેટલાકના મતે તેમના સંચાલનમાં રોમેન્ટિક ટચ આ વખતે વધારે છે. એ કોઇ મહિલા કન્ટેસ્ટન્ટની આંખોમાં આંખો નાખીને “કભી કભી મેરે દિલમેં ખયાલ આતા હૈ” ભજવે છે. તો વળી કોઇને છુટ આપતાં કહેશે, “આપ હમેં અમિતજી કહીએ, અમિત ભી કહ સકતી હૈં, એબી ભી કહ સકતી હૈં, એ ભી કહ સકતી હૈં”! સાથે સાથે એ પણ ખરું જ કે સામે બેઠેલી મહિલા કે છોકરી તેમનાથી ઉંમરમાં નાની જ હોય છે. વળી અમિતજી ‘સદી કે મહાનાયક’ હોવાથી સામે માત્ર કેમેરો હોય તો તેના લૅન્સમાં જોઇને પણ એટલા જ ભાવથી રાખી કે ઝિનત અથવા હેમા માલિની સામે જોઇને કરવાનો પ્રેમાલાપ કરી શકે.

હેમામાલિનીએ કદાચ એ જ કારણસર પિછલે દિનોં ફરિયાદ કરી કે તેમની સામે ઉભો રહી શકે એવો કોઇ હિરો આજકાલ નથી. દર વખતે અમિતાભ જ હોય તો લાંબા ગાળે લોકો કંટાળે. એટલે ૭૧ વરસના ‘દાદા’ની ડિમાન્ડ હેમાબા કે ઝિનતબા સાથે હજી આજેય અકબંધ છે. ઝિનત અમાનને હમણાં ૧૯મીએ ત્રેસઠમું બેઠું અને હેમા-માજીને, સૉરી હેમાજીને, ૬૫ થયાં છે. છતાં એ માજીઓ કડે ધડે છે. એ સંજોગોમાં જો શશિકપૂરની તબિયત સારી રહી શકી હોત તો હેમા માલિનીએ કરી એવી ફરિયાદ ના રહેત. પરંતુ, બાપડા શશિબાબાને સ્ટ્રોક આવ્યા પછી અપાહિજ તરીકે વ્હીલચેરમાં ફરવું પડે છે. શશિકપૂરને જ્યારે જાહેરમાં આવેલા જોઇએ, ત્યારે અમારા જેવા તેમના જુના ચાહકોની આંખોમાં ઝળઝળિયાં આવી જ જાય. 



શશિકપૂર ફરી એકવાર હમણાં પબ્લિકમાં આવ્યા હતા, ‘પૃથ્વી થિયેટર્સ’ના ફેસ્ટિવલમાં, ત્યારે તેમને વધાવવા આખું કપૂર કુટુંબ હાજર હતું. રણબીર અને રિશી કપૂર તો ખરા જ. ઉપરાંત સૌથી સિનિયર ક્રિશ્નાજી અને નીલાદેવી પણ ઉપસ્થિત હતાં. શશિકપૂરને ડિઝનીના ‘હૉલ ઓફ ફેમ’માં સ્થાન અપાયું હોઇ તે પ્રસંગે તેમના હાથની છાપ સંગ્રહવાનો એ કાર્યક્રમ હતો. આપણા ગમતા હિરોને અપાતું કોઇ પણ સન્માન કોને રાજી ના કરે? પરંતુ, ક્યાં એ મસ્તીથી ઝુમતો-નાચતો અમ કોલેજિયનોનો પ્રિય ‘શશિયો’ અને ક્યાં આજના માંડ હાલીચાલી શકતા શશિદાદા? શશિકપૂરના ચહેરા પર એ સ્ટ્રોક નહતો આવ્યો ત્યાં સુધી ઉંમર ક્યાં દેખાઈ હતી? એ કાયમ સચિન તેન્દુલકરની માફક છોકરડા (બૉયીશ) જ લાગતા હતાને?

સચિને નિવૃત્તિ લીધી તેની પાર્ટીમાં માત્ર ક્રિકેટરો જ નહીં, ફિલ્મી સિતારાઓ પણ ઉતર્યા હતા. ત્યારે એ ગેસ્ટલિસ્ટમાં કોણ હતું તેના કરતાં કોણ કોણ નહતું તેની ચર્ચા વધારે હતી. એ જ રીતે ‘ધૂમ થ્રી’ના પ્રચારમાં આમિર જ કેમ સૌથી વધારે દેખાય છે? એ શકનો કીડો સળવળતો જ રહે છે. જો ટ્રેઇલર રિલિઝ કરતી વખતે ઉદય ચોપ્રા અને કટરિના ગેરહાજર હતાં, તો આ સપ્તાહે ટાઇટલ સોંગ બહાર પાડતી વખતે અભિષેકની ઉપસ્થિતિ નહતી.... એ મુંબઈમાં હાજર હોવા છતાંય! તમારી શંકાના કીડાને, ‘કોમેડી વીથ કપિલ’માં ‘ગુથ્થી’ બનતા સુનિલ ગ્રોવરને એ શોમાં ના જુઓ તો, સળવળવા દેજો. કેમ કે કોઇ વાતે ખોટું લાગતાં એ રિસાયો છે. તેને મનાવવાના કપિલના પ્રયાસો ચાલુ છે. સવાલ એક જ છે  ‘ગુથ્થી’ની એ ગુથ્થી ક્યારે ઉકલશે? 


 
તિખારો!
 
‘કૉફી વીથ કરન’ની નવી સિઝન શરૂ થાય છે. તેમાં દર વખતે પ્રથમ એપિસોડમાં શાહરૂખથી શુભ શરૂઆત થતી હોય છે. પણ આ વખતે સલમાન હશે. કરણે કદાચ કીંગખાન સાથે હવે ‘બહુ થયું’ એમ વિચારતાં કહ્યું હશે, “કાફી વિથ શાહરૂખ!!”  


 


તાજા કલમ:


આ લેખ મોકલ્યા પછી  ‘રામલીલા’ થિયેટરમાં જોઇ અને જે નિરાશા થઈ તે ફેસબુક પર નીચેના શબ્દોમાં વ્યક્ત કરી હતી:



અમિતાભ બચ્ચનના બોલ પર ‘રામલીલા’ જોયું અને થાકી જવાયું!
‘બીગ બી’એ જાહેર કર્યું કે ‘રામલીલા’ તેમણે ૨૪ કલાકમાં ૩ વાર જોયું. એટલે અમે પણ ડોલર ખર્ચીને આજે પિક્ચર જોયું અને લાગ્યું કે ‘બ્લેક’ની મિત્રતા આવો રંગ પણ લાવી શકે? બચ્ચનદાદાએ સીડી ફોરવર્ડ કરી કરીને જોયું હોય તો જ એ શક્ય બન્યું હશે. બાકી ‘ખુશ્બુ ગુજરાત કી’ની ઍડ ફિલ્મો કરી હોય તો પણ, ગુજરાતની વિવિધતાઓ જોઇને ખુશ થવા કોઇ એક દિવસમાં ત્રણ ત્રણ કલાક ત્રણ વાર બેસી શકે તો તો... ભાઇ ભાઇ!
મને ખબર છે કે ગુજરાતમાં ચારે બાજુથીએ વરસતા પ્રશંસાના વરસાદમાં આ અજુગતું લાગશે. (આમ પણ અમે નવી ફિલ્મો અંગે બોક્સઓફિસ સિવાયની વાત છેલ્લાં પાંચ વરસથી તો કરતા પણ નથી.) પણ ફ્રૅન્કલી, આખી ફિલ્મ અમને તો ભૈ ઓવરડોઝનાય ઓવરડોઝ જેવી લાગી.
દરેક બાબતે કેટલો ઓવરડોઝ? બાપરે!
દર દસ મિનિટે (ક્યારેક તો તેનાથી પણ ઓછા સમયના અંતરે) આવતાં ગાયનોનો ઓવરડોઝ.... બંદુકોનો ઓવરડોઝ..... ધડાધડી મારામારીનો ઓવરડોઝ... આવકારદાયક છતાંય ગુજરાતી સાજ શણગાર, દુહા-છંદ-ગરબાનોય ઓવરડોઝ..... ૭૦ ટકા સીનમાં યુનિફોર્મ જેવાં કપડાં પહેરેલા લોકોની હાજરીનો ઓવરડોઝ (દરેક ફ્રેમમાં પચાસ સો જણ તો હોય જ.... રસ્તા ઉપર કે બજારમાં લોકો એક બીજા સાથે અથડાય એટલી હદે ભીડનો ય ઓવરડોઝ! આ સાથે મૂકેલો ફોટો પણ યુનિફોર્મ બતાવવા ઇરાદાપૂર્વક શોધીનેમૂક્યો છે.... સિરીયસલી, થકા દિયા યાર!! )
‘હમ દિલ દે ચુકે સનમ’માં પણ ગુજરાતી બૅકગ્રાઉન્ડ હતું જ ને? પણ તેમાં હતા એવા લસરકાનું આ પેઇન્ટિંગ નથી... જાડા કુચડાનું ‘કલર’ કામ છે. અમુક સીન અને ગાયનોનું પિક્ચરાઇઝેશન સારું હોવા છતાં મુશ્કેલી એ છે કે કશું સરસ રીતે કનેક્ટ નથી થતું.
વેરી સૅડ! 

સવાલ એ છે કે જો આ સંજય લીલા ભણશાળીની ફિલમ ના હોત તો? કોઇ તેની નોંધ પણ લેત કે?
રણવીરસિંગ અને દીપિકા જેવા જાણીતા સ્ટાર્સની જગ્યાએ મદન ચોપડા અને આરતી સાળુંકે જેવાં નામવાળી કોઇ સાવ નવી જોડી હોત અને પ્રચાર પાછળ આટલો ખર્ચ ના થયો હોત તો ટિકિટબારી પર શું દશા થાત?
બૉક્સઑફિસ પરની કમાણીના આંકડાઓને કારણે કોઇ ફિલ્મ સારી જ હોય એવું નથી હોતું એ તાજેતરનાં ઘણાં પિક્ચરોમાં સાબિત થયેલી વાતને વધુ મજબુત કરે છે. ‘રામલીલા’ની જગ્યાએ માત્ર ‘ગોલીયોંકી રાસલીલા...’ નામ જ વધારે યોગ્ય છે.
ટૂંકમાં સદી કરનારી ફિલ્મ પ્રેક્ષકોને સદી જ હશે તેની કોઇ ગેરંટી નથી.