Wednesday, January 1, 2014

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं..... नादीरा!



 




                                                             नादीरा
प्रतिभावान अभिनेत्री  और  रोबदार व्यक्तित्व  ने बनाया  ‘दुसरी नायिका’!

 

‘विद्या’ और ‘माया’ याद है न?  राजकपूर की अमर कृति ‘श्री ४२०’ में ज्ञान और भौतिक सुखों का विरोधाभास दर्शाने के लिए उन्होंने कहानी के दो पात्रों को ये दो नाम दिये थे। ‘विद्या’ यानि सीधी सादी साडी पहनने वाली सर्वगुण संपन्न शिक्षिका की भूमिका स्वाभाविक ही नरगीस के हिस्से गई। मगर हिरो को अपनी मोह जाल में खिंचने वाली ‘माया’ के रोल के लिए राज साहब ने नादीरा को चुना। नादीरा जी जिन्होंने  मेहबूब खान की ‘आन’ में दिलीप कुमार और निम्मी के साथ सेकन्ड लीड में अपना करियर प्रारंभ किया था, शायद ‘दुसरी नायिका’ के रूप में हमेशा के लिए स्थापित हो गईं। इस लिए  नादीरा के लिए क्या ‘श्री ४२०’ को स्वीकार करना एक भूल थी?  क्योंकि ‘माया’ ने वेस्टर्न कपडे पहनकर सिगरेट पीते हुए जिस अंदाज में नायक को क्लब और पत्तों की दुनिया में आकर्षित किया, उस इमेज के चलते नादीरा के लिए हीरोइन बनना संभव ही नहीं रहा।




 ‘श्री ४२०’ में ही “मुड मुड के ना देख मुड मुड के.....” गाने में क्लब डान्स को परफोर्म किया, तब लगा कि वे जाने-अनजाने अपने आप को डान्सर प्रकार की, नेगेटिव शेडवाली भूमिकाओं के लिए उम्मीदवार बना रही थी। वर्ना बाद की ‘छोटी छोटी बातें’ जैसी फ़िल्म में जब आप उन्हें  नाव में बैठकर “कुछ और ज़माना कहता है.....” गाना गाते देखो तो हिरोइन की संभावना वाली एक खुबसुरत महिला के रूप में नादीरा सामने आतीं है। “कुछ और ज़माना कहता है.....”  ये गाना अनिल बिश्वास के संगीत निर्देशन में उनकी पत्नी मीना कपूर के स्वर का एक दुर्लभ गाना है, और कभी ‘यु ट्युब’ पर इसे देखना, तो नादीरा की ताज़गीभरी ब्युटी का अंदाजा भी आ जायेगा। मगर नादीरा के लिए शायद उनका असाधारण व्यक्तित्व उनकी खुबसुरती पर हावी था। उनको देखकर कभी कमजोर मायूस भारतीय नारी का चित्र सामने नहीं आता था। बल्कि पुरुषों से आंख में आंख मिलाकर बात सकने वाली पाश्चात्य नारी ही ज्यादा लगतीं थी। उसका एक कारण भी था। नादीरा टिपिकल भारतीय कुटुंब से नहीं थी। वे ५ दिसम्बर १९३१ के दिन एक यहूदी परिवार में जन्मी थी और उनका नाम था फ्लोरेन्स एझीकियेल।



इसी लिए उनकी पहली फ़िल्म की हिरोइन निम्मी और दोस्त डोली ठाकोर जैसी उनकी सहेलियां नादीरा जी को प्यार से ‘फल्लु’ कहतीं थी। उनके दो भाई भी थे और रिश्तेदार अमरिका तथा इसरायेल में भी थे। परंतु, भारत में तो फिल्मी दुनिया के लोग ही उनका परिवार थे। उन्हें अपने विशीष्ट लूक के कारण बहुधा पाश्चात्य पात्रों के रोल ही मिलते थे; जो हमारी फ़िल्मों में या तो कोमेडी के लिए लिखे जाते थे या तो नेगेटीव पात्रों को प्रस्तुत करने के लिए। लेकिन नादीरा उनमें अलग थीं। याद करें उन्हें ‘जुली’ में। उस में उन्होंने एक ऐसी माता की भूमिका निभाई थी, जिनकी बेटी शादी से पहले प्रेग्ननन्ट हो जाती है। नादीरा के पात्र मार्गारेट ‘मेगी’ की व्यथा ये थी, कि एक आज़ाद खयाल मां की बेटी ‘जुली’ जवानी के जोश में ऐसी भूल कर बैठी, जिस से समाज में मां को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाय। 




नादीराजी के अभिनय का ही कमाल था कि ‘जुली’ के लिए उस वर्ष ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री’ का फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड उन्हें मिला था। मगर कई बार उनके हिस्से दर्शकों में अप्रिय होने वाली भूमिकाएं आई थी। जैसे ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में ‘कुसुम’ का पात्र। नादीरा नायिका नर्स (मीना कुमारी) के डॉक्टर प्रेमी (राजकुमार) की पत्नी की भूमिका में थी। उनके शक की वजह से नायिका को परेशान होना पडता था। यह कोई लोकप्रियता दिलाने वाला रोल नहीं था। अपनी प्रथम फ़िल्म ‘आन’ में उन्हें राजकुमारी राजश्री के रूप में हाथ में बेत लिए बात बात पर गुस्सा करना था और नहाने का सीन भी था। आज भी ‘आन’ देखो तो न वो नादीरा की पहली फ़िल्म लगेगी और ना ही १९५२ की, यानि ६० साल पुरानी! उस समय के टोप हीरो राज कपूर (श्री ४२०),  दिलीप कुमार (आन),  देव आनंद (पोकेटमार), शम्मी कपूर (सिपह सालार) सब के साथ करने के बावजुद एक बात का आश्चर्य हमेशा रहा था। उनको बार बार लेने वाले निर्माता कम थे।




क्या वो उनकी रोबदार पर्सनेलिटी का असर होगा? अपने जमाने में रोल्स रोइस गाडी रखने वाली नादीरा जी एक मात्र अभिनेत्री थी! इस लिए कम फ़िल्में लेती, मगर अपने भाव पर करती होंगी ये अनुमान लगाया जा सकता है। अपने घर में अच्छी से अच्छी शराब के साथ पार्टी देने वाली नादीरा के वहाँ उनके पिछले दिनों में कोई आता नहीं था; जिसका उन्हें स्वाभाविक ही, बडा दुःख था। जब ६० और ७० के दशक में वे चरित्र अभिनेत्री के रूप में आई तब भी स्क्रिन पर उनका रुतबा अलग ही होता था। ‘पाकीज़ा’ में वो ‘गोहरजान’ बनी थी, जो मीना कुमारी को ‘भान्जी’ बनाकर अपने कोठे पर बिठाती है। तब भी उनका रोबदार व्यक्तित्व कितना असर छोड जाता था। ऐसा ही रोल ‘चेतना’ में था जिस में वे कॉल गर्ल भेजने वाली ‘मेडम’ बनी थीं। नादीरा हिरोइन रेहाना सुलतान को देह-व्यापार की करूणताएं बताती हैं वो सीन याद है। दर्शकों को छु जाने वाले उस द्दश्य में नादीरा जी का एक संवाद आज भी जैसे कानों में गूंजता है। वे रेहाना से कहतीं हैं,“तुम मेरा गुजरा हुआ कल हो और मैं तुम्हारा आने वाला कल हुं”!




नादीरा जी अंत तक काम करती रही थी। उनकी अंतिम फ़िल्मों में २००१  ज़ोहरा महल’ और २००० में आई शाहरूख और ऐश्वर्या की ‘जोश’ और पूजा भट्ट की ‘तमन्ना’ भी थी। इन के अलावा  ‘मेहबूबा’, ‘झुठी शान’, ‘लैला’, ‘मौला बक्ष’, ‘सागर’, ‘रास्ते प्यार के’, ‘अशांति’, ‘आसपास’, ‘चालबाज़’, ‘स्वयंवर’, ‘दुनिया मेरी जेब में’, ‘बिन फेरे हम तेरे’, ‘मगरूर’, ‘नौकरी’, ‘आप की खातिर’, ‘आशिक हुं बहारों का’, ‘अमर अकबर एन्थनी’, ‘डार्लिंग डार्लिंग’, ‘पापी’, ‘भंवर’, ‘धर्मात्मा’, ‘कहते हैं मुझको राजा’, ‘मेरे सरताज’, ‘फ़ासला’, ‘इश्क इश्क इश्क’, ‘वो मैं नहीं’, ‘एक नारी दो रूप’, ‘हंसते ज़ख्म’, ‘प्यार का रिश्ता’, ‘एक नज़र’, ‘राजा जानी’, ‘इश्क पर जोर नहीं’, ‘सफ़र’, ‘इन्साफ़ का मंदिर’, ‘जहां प्यार मिले’, ‘तलाश’, ‘सपनों का सौदागर’, ‘मेरी सुरत तेरी आंखें’, ‘काला बाज़ार’ जैसी फ़िल्में भी शामिल हैं।

परंतु, अंतिम वर्षो में जब उन्हें स्ट्रोक आया और उसका असर शरीर के एक हिस्से पर हुआ; तब इतनी अच्छी अभिनेत्री भी फ़िल्म उद्योग के लिए पराई हो गई थी। उनकी करीबी पुरानी सहेलियों के अलावा दीप्ति नवल ही थी, जो उन से मिलने जाती थी। दीप्ति उन्हें ‘नादीरा आपा’ बुलाती थी। वे दोनों पहली बार १९८१ में  हमदर्द’ के सेट पर मिले थे, जो बनी ही नहीं। मगर वे एक दुसरे के जीवनभर के हमदर्द बन गए। दीप्ति की फ़िल्म ‘एक बार चले आओ’ और सिरियल ‘थोडा सा आसमान’ में भी ‘आपा’ थी। ये शायद इत्तफ़ाक ही होगा कि ३ फरवरी को जन्मी दीप्ति के २००६ में आये ५०वें जन्मदिन के एक हफ्ते बाद ही ९ फरवरी के दिन ‘नादीरा आपा’ ने बम्बई के भाटिया होस्पिटल में अपनी अंतिम सांस ली। हालांकि वे यहूदी थीं, उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा में अग्नि संस्कार के लिए कहा था।



लिहाजा चंदन वाडी स्मशान गृह में उनका दाह संस्कार हुआ। मगर तब वहाँ उनके पडोसीओं के अलावा सिनेमा उद्योग से दीप्ति नवल, गुलज़ार, महेश भट्ट, मधुर भंडारकर, डोली ठाकोर, सिने आर्टिस्ट एसोसीएशन के एक्टर चन्द्र शेखर और राम मोहन जैसे गिने चुने लोग ही उपस्थित थे। अपनी ज़िन्दगी के पचास से भी अधिक साल सिनेमा को देने वाली इस प्रतिभावान अभिनेत्री की अंतिम बिदाई इस से कहीं अच्छी हो सकती थी। क्या फ़िल्म इन्डस्ट्री उस समय नादीरा जी को भूला चूकी थी? पता नहीं! मगर हम सिनेमा प्रेमी के दिल-ओ-दिमाग में अपने एक एक रोल के अभिनय से नादीरा जी आज भी ज़िन्दा ही हैं।










































































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