दुर्गा
खोटे
ममता भरे अभिनय और मजबुत मनोबल का खरा सिक्का!
दुर्गा खोटे यानि ‘महाराणी जोधाबाई’ यही छवी कितने
सालों से दिल दिमाग में छाई हुई है। ‘मुगल-ए-आज़म’
में पति शेहनशाह अकबर और बेटे सलीम की टक्कर में पीसने वाली जोधाबाई की भूमिका में
दुर्गाबाई ने पृथ्वीराज कपूर तथा दिलीपकुमार जैसे दो दो दिग्गज अभिनेताओं के साथ अपनी
प्रतिभा के वो जौहर दिखाये थे कि राजघराने की एक नारी की सारी संवेदनाएं पर्दे पर बखुबी
प्रस्तुत की। शहजादा सलीम जंग के मैदान से आते हैं तब का ममतामयी चेहरा हो या कृष्ण
जन्म के महोत्सव पर छलकती भक्ति, पिता के खिलाफ़ जाने के लिए तैयार पुत्र को सख्ती से
राजधर्म की याद दिलाती राजमाता का अभिनय..... क्या क्या नहीं किया था दुर्गा जी ने
‘मुगल-ए-आज़म’ में। जब पति और बेटे में
से किसी एक को पसंद करने का आदेश अकबर करते हैं, तब छलकती आंखों से वे जिस अंदाज से
कहतीं हैं, “मेरी तो दोनों तरफ हार है, जहांपनाह... एक तरफ औलाद है और दुसरी तरफ सुहाग...”
(सुपर्ब!)
दुर्गा खोटे की आंखों से ममता का छलकना इतना सहज
था कि उस में कभी अभिनय लगता ही नहीं था। इस लिए उन्हें ‘अभिमान’ में अमिताभ की ‘दुर्गा मौसी’ के रूप में हों या ‘बॉबी’ में ‘मिसीस ब्रिगेन्जा’ की भूमिका में
हर एक में उनकी छवी वात्सल्यभरी ही थी। उनके पास कपट, कलेश या बुराई करने वाले पात्रों
का शायद चेहरा ही नहीं था। गाल में पडते डिम्पल और निर्मल आंखें दुर्गा जी को चरित्र
अभिनेत्रीओं में तो सबसे अलग रखने के लिए उपयुक्त थी। ये सब अपनी युवानी के दिनों में
जब वे नायिका के रोल करतीं थीं उन दिनों की उनकी खुबसुरती की कल्पना करने के लिए भी
उपयुक्त थे। उन्हें ‘बावर्ची’ के गीत “भोर आई, गया अंधियारा...” के अंतिम हिस्से
में उस उम्र में भी पैर थिरकाते देखकर उनके
हीरोइन वाले दिनों का अंदाजा आ सकता है।
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फ़िल्मों में चरित्र अभिनेत्री की भूमिकाएं करना शुरु किया। तो ’६८ में भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से नवाजा। उनकी प्रमुख फ़िल्मों में शामिल है, ‘गोपी’, ‘खुश्बु’, ‘काला सोना’, ‘चैताली’, ‘जानेमन’, ‘शक़’, ‘साहिब बहादुर’, ‘डार्लिंग डार्लिंग’, ‘कर्ज़’, ‘चाचा भतीजा’, ‘नमक हराम’, ‘शरारत’, ‘अनुपमा’, ‘पूर्णिमा’, ‘देवर’, ‘दादीमा’, ‘प्यार मोहब्बत’, ‘झुक गया आसमान’, ‘सगाई’, ‘सपनों का सौदागर’, ‘संघर्ष’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘एक फूल दो माली’, ‘जीने की राह’, ‘खिलौना’, ‘काजल’, ‘दो दिल’, ‘आनंद’, ‘बनफूल’, ‘दूर की आवाज़’, ‘मुझे जीने दो’, ‘सन ओफ इन्डिया’, ‘शगून’, ‘कैसे कहुं’, ‘भाभी की चूडियां’, ‘लव इन सिमला’, ‘उसने कहा था’, ‘मनमौजी’, ‘मैं सुहागन हुं’, ‘रंगोली’ इत्यादि।
दुर्गा खोटे प्रसाद प्रोडक्शन की फ़िल्मों में नियमित
रूप से ली जाती थी। उनकी जीतेन्द्र और लीना चंदावरकर की भूमिका वाली ‘बिदाई’ के अभिनय के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर
का ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री’ का एवार्ड मिला था। एक्टिंग के पुरस्कार के लिहाज से
ये कोई पहली बार होने वाली घटना नहीं थी। क्योंकि बरसों पहले १९४१ में ‘चरणों की दासी’ और ’४२ में ‘भरत मिलाप’ इन दोनों के लिए उन्हें लगातार दो साल उन दिनों के प्रतिष्ठित ‘बेंगाल फ़िल्म जर्नालिस्ट असोसीएशन’ का एवार्ड प्राप्त
हुआ था। उन्होंने १९३७ में ‘साथी’ बनाई
और भारतीय सिनेमा में प्रोड्युसर और डीरेक्टर बनने वाली प्रथम महिला बनीं। उस समय की
अत्यंत पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में वो कितना बडा़ साहस था, ये आज कितने लोग समज
पायेंगे?
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उनका ममता भरा मासुम चेहरा किसी को भी धोखे में डाल
सकता था। क्योंकि जैसा कि हमने देखा, वे अत्यंत मजबुत मनोबल वाली महिला थी। उनकी मराठी
में लिखी आत्मकथा ‘मी दुर्गा खोटे’ का अंग्रेजी भाषांतर जब शांता गोखले ने किया, तब
स्वाभाविक ही उस पुस्तक का नाम ‘आई दुर्गा खोटे’ रखा गया। मराठी में ‘माता’ को ‘आई’
कहते हैं। ऐसी ‘आई दुर्गा खोटे’ का ८६ वर्ष की उम्र में १९९१ की २२ सितम्बर के दिन
देहांत हो गया। मगर कभी माता तो कभी दादीमा के वात्सल्य से छलकते पात्रों से दुर्गा
जी आज भी हम सब के बीच ज़िन्दा ही हैं।
Very veryv nice. Thanks.
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