Tuesday, July 23, 2013

ये आज भी जिन्दा ही हैं..... नज़ीर हुसैन



एक विशिष्ट शृंखला... ‘ये आज भी जिन्दा हैं’ !

फ़िल्मों के भारत में आगमन को १०० साल होने की खुशी में हो रहे उत्सवों में अपने ज़माने के बडे बडे स्टार्स को तो याद किया जाता रहा है। मगर क्या एक फ़िल्म सिर्फ़ उन दो चार सितारों से ही बनती है? एक कहानी में छोटे-बडे कितने ही किरदार होते हैं। उनके योगदान को  शायद कोई इतना याद नहीं करता। हालांकि वो तो नींव के उन पथ्थरों के समान होते हैं, जिन से कहानी की इमारत खडी होती है और उस में मोड आते हैं, जिस से कलाकार ‘स्टार’ बन जाते हैं।


१०० साल के उत्सव के दौरान अगर किसी निर्माता-निर्देशक ने ऐसे कलाकारों के बारे में कोई दस्तावेजी चित्र बनाया होता तो कितना अच्छा होता? अगर सिनेमा के पर्दे पर नहीं हुआ उसे हम अखबार के माध्यम से करने की कोशीश करेंगे। इस शृंखला में हम उन कलाकारों के संघर्ष तथा योगदान का स्मरण करने का नम्र प्रयास करेंगे। उन में से कुछ तो अपने समय में नायक या नायिका की भूमिका भी कर चूके होंगे। आशा है आप सब ‘‘सलिल की मेहफ़िल’ के गुणी पाठक इसे भी पसंद करेंगे। 




                                                                                                   
नज़ीर हुसैन: 

परदे के भावप्रवण पिता
और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सैनिक!


हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए नज़ीर हुसैन का नाम आते ही पिता की भूमिका में उनके निभाये जाने कितने ही किरदार स्मरण में आ जाते हैं। उन्हें ‘आरज़ु’ में नायिका साधना के पिता के रोल में याद करते ही उनके एक से एक संवाद ताज़ा हो जाते हैं। एक द्दश्य में रोते हुए वे कहते हैं, “अगर बेटी का भला सोचना बाप के लिए गुनाह है, तो मैं तुम्हारा गुनहगार हुं, बेटी। और भी जितना कहना है कहो... कुछ और ताने मारो।” जब हीरो राजेन्द्र कुमार साधना को पहचानने से इनकार कर चल देता है, तब अपनी बेटी के आग्रह के खिलाफ़ पिता उसे यह कहकर नहीं रोकते कि “जो ठोकर मारकर चला गया, उस से भीख मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, उषा... कुछ नहीं मिलेगा!” उसी फ़िल्म में “छलके तेरी आंखों से शराब और जियादा...” गीत के दौरान ‘वाह वाह’ करते नज़ीर हुसैन हो या ‘राम और श्याम’ में दिलीप कुमार के हंसी-मजाक वाले संवादों पर ठहाके लगाते नज़ीर हुसैन हों हर प्रकार के अभिनय में एक सच्चाई होती थी।


 

 ‘प्रेम पूजारी’ का गीत “ताकत वतन की हम से है...” देखने के लिए यहाँ क्लिक करें

लेकिन उनके हिस्से बहुधा हीरोइन के पिता की करूण भूमिकाएं ज्यादा आतीं थीं। कुछ ऐसी ही स्थिति आजकल आलोकनाथ की कही जा सकती है, जो भी एक दु:खी पिता के काफी रोल कर चूके हैं। उसी नज़ीर हुसैन को देव आनंद की ‘प्रेम पूजारी’ में परदे पर एक टांग वाले अपाहिज सैनिक बने और “ताकत वतन की हमसे है, हिम्मत वतन की हमसे है...” समूह गीत गाते देखने वाले  कितने लोग जानते होंगे कि नज़ीर साहब असल ज़िन्दगी में भी अपनी युवानी में सैनिक बन चूके थे! वे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ हुकुमत के खिलाफ जंग लडने के लिए नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की बनाई ‘आज़ाद हिन्द सेना’ के सिपाही थे। 

वैसे उनकी पहली नौकरी अपने पिताजी की तरह भारतीय रेल में की थी। नेताजी की सेना में वे बर्मा (आज के मयनमार) में पहुंचे थे। उस सेना का हौसला बढाने के लिए नज़ीर हुसैन उन दिनों नाटक लिखते भी थे और उन में अभिनय भी करते थे। इस लिए नेताजी भी उन्हें पसंद करते थे। यही वजह थी कि नेताजी ने उन्हें ‘आइ एन ए’ के प्रचार विभाग की बागडोर सोंपी थी। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद आज़ाद हिंद सेना के अन्य सैनिकों के साथ जब उन्हें भी रिहा किया गया, तब अपने वतन उत्तर प्रदेश जाने के बजाय वे नज़ीर हुसैन भी अपने बंगाली दोस्तों के साथ कलकत्ता में स्थायी हो गए।


कलकत्ता में नेताजी के एक भाई ने नज़ीर जी को न्यू थिएटर्स में बी एन सरकार से मिलाया और अभिनय की गाडी भारत में भी चली। ऐसे ही एक शो में आये बिमल रोय ने नज़ीर हुसैन को देखा और उन से बातचीत से प्रभावित होकर बिमल दा ने आज़ाद हिन्द सेना की पृष्ठभूमि वाली ‘पहला आदमी’ बनाई। उस समय उनकी उम्र ३० साल की थी और नज़ीर हुसैन ने पिता का रोल इतने अच्छे से निभाया कि बिमल रोय ने ‘बोम्बे टॉकिज़’ के लिए बनाइ अगली फ़िल्म ‘मां’ में भी पिता की भूमिका के लिए नज़ीर सा’ब को ही चूना। इस तरह से नज़ीर हुसैन बम्बई आए। फिर तो वे बिमल रोय की फ़िल्मों में जैसे एक अनिवार्य अभिनेता हो गए। उनकी फ़िल्म ‘बिराज बहु’ के संवाद लिखे। बिमल दा की ‘यहुदी’ हो या ‘परिणिता’ नज़ीर हुसैन अनिवार्य थे। 




तो ‘देवदास’ में हीरो की बचपन से देखभाल करने वाले ‘धर्मदास’ के महत्वपूर्ण पात्र में बिमल दा ने नज़ीर हुसैन को लिया था। बिमल रॉय के बहुधा साथी उन दिनों मलाड में नडियादवाला कोलोनी में रहते थे। उन में ह्र्षिकेश मुकरजी से लेकर नबेन्दु घोष और सुधेन्दु रॉय तक के सभी का समावेश होता था। धीरे धीरे सब वहां से दुसरे इलाकों में चले गए। परंतु, नज़ीर हुसैन और हास्य अभिनेता असित सेन वहीं एक ही मकान में उपर नीचे रहे। सभी बंगाली दोस्तों के बीच रहकर अच्छी खासी बंगाली भाषा बोलने वाले नज़ीर साहब का वतन उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर में था। उन्होंने अपना परिवार बम्बई बुला लिया। अब घर में अपनी भोजपुरी भाषा का चलन बढता गया जिसने आगे चलकर नज़ीर हुसैन को भोजपुरी फिल्म उद्योग के महत्वपूर्ण निर्माता भी बनाया। उनकी लिखी ‘गंगा मैया तोहरे पियरी चढैबो’ आज भी भोजपुरी की प्रारंभिक सुपरहीट फ़िल्मों में गिनी जाती है।



जब कि हिन्दी फ़िल्मों में उनका सफ़र निरंतर जारी था। उनकी फ़िल्मों में प्रमुख हैं, ‘अमर अकबर एन्थनी’, ‘कटी पतंग’, ‘लीडर’, ‘कश्मीर की कली’, ‘चरस’, ‘ज्वेल थीफ’, ‘’, ‘कर्मयोगी’, ‘राजपुत’, ‘धी बर्नींग ट्रेइन’, ‘मेहबुबा’, ‘बैराग’, ‘तपस्या’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘धर्मात्मा’, ‘कुंवारा बाप’, ‘अनुराग’, ‘मेरे जीवनसाथी’, ‘शर्मिली’, ‘अभिनेत्री’, ‘गीत’, ‘हमजोली’, ‘आया सावन झुमके’, ‘चिराग’, ‘जहां प्यार मिले’, ‘शागीर्द’, ‘मेरे सनम’, ‘आई मिलन की बेला’, ‘अनपढ’, ‘असली नकली’, ‘गंगा जमुना’ इत्यादि। ‘गंगा जमुना’ में एक ऐसे पुलिस अधिकारी वे बने थे, जो नासिर खान को अपने भाई को पकडने की हिंमत और ज्ञान देते हैं।



फ़िल्मों में अपने सिद्धांतो पर अडिग रहने वाले पात्र निभाने के माहिर नज़ीर हुसैन अपनी असल ज़िन्दगी में भी वैसे ही थे। जैसे कि ‘गंगा मैया तोहरे...” की उनकी लिखी कथा के बारे में किसी ने ये दावा किया था कि असल में उस कहानी के लेखक कोई और थे। अब जानने वाली बात ये थी कि हमारे प्रथम राष्ट्रपति बाबु राजेन्द्र प्रसाद के सूचन पर नज़ीर हुसैन ने भोजपुरी फ़िल्म लिखी थी। इस लिए उनकी कहानी पर किसी और के दावे से वो इतने नाराज़ हो गए थे कि अदालत में केस दाखिल कर दिया। इतना ही नहीं, अदालत को नज़ीर साहब के पक्ष में अपना फैसला देना पडा था।
परदे पर बेशुमार आंसु बहाने वाले इस अभिनेता के जीवने में भी ऐसे ही दु:ख आये थे। उनके सबसे छोटे बेटे इम्तियाज़ के प्रति उनका ज्यादा लगाव था। क्योंकि वो मानसिक रूप से बिमार था। 

मगर ११ साल की उम्र में ही उस की मौत हो जाने से नज़ीर सा’ब काफी विक्षुब्ध हुए थे। उनका जीवन भी एक सैनिक की भांति काफी शिस्त भरा था। हर सुबह उन्हें रोड पर दौडते देखना जैसे उनके घर के आसपास रहने वालों के लिए एक नित्य द्दश्य हो गया था। अगर बारिश होती थी तो वे छाता लेकर भी दौडते अवश्य थे। शाम के खाने के बाद चलने का दस्तुर भी नियमित था। फिर भी इतने रैग्यलर एक्सरसाईज़ करने वाले इन्सान की ह्रदय रोग के हमले में ही उनकी मौत हुई। २५ जनवरी १९८४ के दिन उनका देहांत हो गया। एक सिपाही के लिए इस से अच्छा दिन कौन सा हो सकता था? दुसरे दिन २६ जनवरी थी जिस दिन हर साल सारा देश सैनिकों को सलामी देता है। आज उनके निधन के इतने साल बाद भी नज़ीर हुसैन उनकी सैंकडों फ़िल्मों के अपने संवेदनशील अभिनय से हमारे बीच हमेशा के लिए जीवित ही हैं।












3 comments:

  1. નઝીર હુસૈનનો લેખ વાંચી ખૂબ આનંદ થયો.ઘણે વર્ષે જાણે કોઈક ખોવાયેલું મળ્યું!વર્ષોથી તમારી કોલમની નિયમીત વાચક હોવાને કારણે જુના પ્રિય કલાકારો વિષે વાંચવાની ઘણી મજા આવતી.આ બ્લોગને કારણે ફરી એ આનંદ મળશે.આભાર.

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  2. Nasir hussain, or Nazir hussain ?

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    1. Naasir Hussain was a producer-director and was a different person.

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