Wednesday, August 21, 2013

ये आज भी जिन्दा ही हैं.... सत्येन कप्पु






सत्येन कप्पु:  रंगमंच और सिनेमा के मंजे हुए चरित्र अभिनेता!


                   सत्येन कप्पु का नाम आते ही आज भी ‘शोले’ के ‘रामलाल’ नज़र के सामने दिखने लगते हैं, जो कि अपने मालिक ‘ठाकुर’ यानि संजीवकुमार के वफादार सेवक हैं और इशारों में समज जाते हैं। ‘शोले’ में वैसे तो उन्हें जो रोल मिला था, वो इतना बडा नहीं था। मगर जितने भी द्दश्य मिले थे, उन में उन्होंने अपनी छाप छोडी थी। यानि कि जब ठाकुर की हवेली के बारे में पहली बार अमिताभ पूछने का प्रयास करते हैं, तब आगंतुकों को कुछ नहीं बताना था तो एक ‘नो नोनसेन्स’ तरीके से बात को टालना जितनी सहजता से करते हैं; उतने ही स्वाभाविक वे उस वक्त लगते हैं, जब जया भादुड़ी के पात्र ‘राधा बिटीया’ के हंसते खिलखिलाते अतीत को याद करते हैं। उसी फ़िल्म में ठाकुर के परिवार के सदस्यों की हत्या के बाद जिस अंदाज से वे रो देते हैं, वो भी एक मंजे हुए कलाकार की पेहचान समान द्दश्य था।और वाकई सत्येन कप्पु हिन्दी रंगमंच के मंजे हुए कलाकार थे, जिन्हें हिन्दी सिनेमा ने काफी देर के बाद पहचाना था।


                   हालांकि सत्येन मुंबई में रंगमंच पर ’६० के दशक से व्यस्त थे और बिमलरॉय की फ़िल्मों में भी छोटी छोटी भूमिकाएं वे निभाते आये थे; मगर हिन्दी सिनेमा में उनका करियर सच्चे मायनों में राजेश खन्ना की सुपर हीट फ़िल्म ‘कटी पतंग’ से प्रारंभ हुआ। उस वक्त सत्येनजी की उम्र करीब ४० साल होने को आई थी। उनका जन्म १९३१ में हरियाणा के पाणीपत में हुआ था, जो कि अपनी युद्धभूमि के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। उनका असली नाम सत्येन्द्र शर्मा था और उनकी माताजी उन्हें प्यार से ‘कप्पु’ बुलातीं थी। उसीको उन्होंने अपना कुलनाम बना लिया था, यह खुलासा १९८१ के एक इन्टर्व्यु में सत्येन जी ने किया था।

                   सत्येन कप्पु जी ने अपने माता-पिता को छोटी उम्र में ही खो दिये थे। लिहाजा रिश्तेदारों ने इस बालक को हरियाणा की ही एक अन्य युद्धभूमि कुरुक्षेत्र के गुरुकुल में भेज दिया। इन दो लडाई के मेदानों में हुई परवरिश का नतीजा था या सत्येन कप्पु की कुंडली में ही संघर्ष था, ये पता नहीं। मगर अपनी दुनिया, अपने लोग, अपने दोस्तों से दुर जाने का गम शुरु में बहुत ज्यादा रहा। धीरे धीरे गुरुकुल की शिस्त से तैयार होते गये और वहाँ की नाट्य प्रवृत्ति में रुचि लेना शुरु किया। मगर संघर्ष तो उधर भी खडा था। हीरो का रोल तो मिलने से रहा!

                   जब भी ड्रामा की कास्टींग होती थी, खुबसुरत सत्येन्द्र को रामायण में ‘सीता’ बनाया जाता था और जन्माष्टमी पर किसी किशन की ‘राधा’ की भूमिका मिलती थी। मगर जैसी मिली ऐसी भूमिकाओं के कारण मंच पर अभिनय करने का आत्मविश्वास प्राप्त होता गया। इस लिए जब उनके एक बडे भाईने उन्हें मुंबई बुलाया तब नाटक का वह अनुभव काम आया। न सिर्फ़ वे पृथ्वीराज कपूर के ‘दीवार’ तथा ‘पठाण’ जैसे प्ले देखने जाते थे, बल्कि नाटकों में काम ढूंढने के लिए वे इन्डीयन पीपल्स थियेटर्स -इप्टा- के सदस्य भी बने।

                   ‘इप्टा’ के वे सुनहरे दिन थे, जब बिमल रॉय से लेकर बलराज साहनी और कवि शैलेन्द्र से संजीव कुमार तथा ए. के. हंगल सरीखे लोग उस प्रतिष्ठित संस्था में कार्यरत थे। इप्टा के नाटक ‘बाबु’ में एक नोन गेज़ेटेड सरकारी कर्मचारी के इर्दगिर्द कहानी घूमती थी। उस में हंगल साहब के साथ सत्येन थे। तो चेखोव के लिखे ‘वॉर्ड नंबर सिक्स’ में भी वे थे। विश्वामित्र अदील का प्ले ‘इलेकशन टिकट’ भी किया। इन सारे नाटकों में काम करते देख बिमलदा ने उन्हें ‘नौकरी’ फ़िल्म में ‘दुधवाला’ का एक सीन का काम दिया, वहाँ से सत्येन कप्पु की फ़िल्मी अभिनय की नौकरी का प्रारंभ हुआ। उस के बाद ‘अपराधी कौन’ में तथा ‘काबुलीवाला’ में भी वे तनिक देर के लिए दिखे। बाकी समय वे रंगमंच में व्यस्त रहते थे।

                   मगर रंगमंच आपके मन की आग को तो शांत कर सकता है, पेट की आग को नहीं बुझा सकता! बम्बई शहर में परिवार को रहने-पालने के लिए नियमित आय होना आवश्यक होती थी/ होती है, आज भी। इस लिए सत्येन जी ने हिन्दी टाइपींग का काम शुरु किया। वे कभी विश्वामित्र अदील की स्क्रीप्ट टाइप करते तो कभी गुलज़ार की कविताओं को। जब भी निर्माताओं को अपनी स्क्रीप्ट सेन्सर बोर्ड में देनी होती थी, तब वे भी सत्येन जी को टाइपींग का काम देते। १९८१ के उस इन्टर्व्यु में सत्येन कप्पु ने हिन्दी ‘ब्लीट्ज़’ पत्रिका के संपादक सक्सैना जी को भी भाव से याद किया था, जिन्हों ने बतौर अपने टाइपीस्ट कुछ समय के लिए उन्हें नौकरी दी थी।

                   इस तरह जीवन में सतत संघर्ष करते सत्येन जी के लिए कुरुक्षेत्र और पानीपत का पानी आखिर रंग लाया,  ’७० के दशक में! उस वर्ष आई ‘कटी पतंग’ में डॉक्टर और ‘खिलौना’ में वकील बने सत्येन कप्पु के रूप में एक युवा चरित्र अभिनेता हिन्दी सिनेमा को मिला। ऐसी भूमिकाओं में मध्यवय के अदाकार भी हो सकते हैं, इस धारणा का वो नया दौर था। फिर तो ‘अमरप्रेम’, ‘रखवाला’, ‘सीता और गीता’, ‘जाने अनजाने’, ‘लाल पथ्थर’ जैसे पिक्चरों में वे दिखे। मगर जया भदुडी तथा रणधीर कपूर की  ‘जवानी दीवानी’ के ‘मामाजी’ की लोकप्रियता सबसे अलग थी। क्योंकि सत्येन जी हीरो रणधीर के नकली पिता बनकर जो मनोरंजन करा गए, उस से उनकी मांग में इतना ज्यादा उछाल आया कि फ़िल्मों के आफर्स की जैसे बाढ आ गई।


                    अब सत्येन कप्पु हीट और सुपर हीट फ़िल्मों का नियमित हिस्सा होने लगे। ‘अनुराग’, ‘यादों की बारात’, ‘अपना देश’, ‘हंसते ज़खम’, ‘अनहोनी’, ‘हिन्दुस्तान की कसम’, ‘कीमत’, ‘खोटे सिक्के’, ‘आपकी कसम’, ‘कसौटी’, ‘दोस्त , ‘हाथकी सफाई’ जैसे चित्रों में वे अलग अलग भूमिकाओं में दिखते थे। ‘दीवार’ में अमिताभ बच्चन के भगोडे पिताकी भूमिका में कुछ ही द्दश्य होने के बावजुद काफी ध्यान खिंच गए थे। फिर ‘शोले’ में ‘रामलाल’ बने और अमिताभ, राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र जैसे उस समय के सभी स्टार्स की फ़िल्मों में पुलीस, डॉक्टर, वकील, चाचा, पिता या बडे भाई के पात्र के लिए अब निर्माताओं के पास सत्येन कप्पु जैसे मंजे हुए कलाकार थे। उस दौर की फ़िल्मों में ‘मजबुर’, ‘बेनाम’, ‘आविष्कार’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘कर्तव्य’, ‘रेडरोज़’, ‘धी बर्नींग ट्रेईन’, ‘ज्योति बने ज्वाला’ थी।
        १९८० के दशक में भी ‘नसीब’, ‘कुदरत’, ‘लावारिस’, ‘एक दुजे के लिये’, ‘नमक हलाल’, ‘खुद्दार’, ‘पुकार’, ‘सौतन’, ‘कुली’, ‘कयामत’, ‘शराबी’, ‘इन्किलाब’, ‘बाज़ी’, ‘खुदगर्ज़’, ‘इमानदार’, ‘खतरों के खिलाडी’, ‘हत्या’, ‘बीवी हो तो ऐसी’, ‘ज़ख्मी औरत’, ‘जोशीले’, ‘जादुगर’, ‘कानून अपना अपना’  इत्यादी थी। वे अपने आप को किसी भी अभिनेता के केम्प से अलग रखते थे। इस लिए हर बडे स्टार की फ़िल्म में सत्येन कप्पुजी की छोटी-मोटी कोई न कोई भूमिका रहती थी।

                     उनके रोल अब  सिर्फ़ हीरोइन या हीरो के पिता या बडे भाई तक सिमित नहीं थे। वे नकारात्मक भूमिकाएं भी करते थे। ’८० के दशक की उनकी व्यस्तता का अंदाजा इस बात से भी आ सकता है कि हर साल उनकी दर्जन भर फ़िल्में आती थी। जैसे १९८१ में १२ तो ’८३ में १६, ’८८ में १८ और ’८५ में तो २० फ़िल्मों में सत्येन कप्पु थे। लेकिन ’९० का दशक शुरु होते उन के काम का प्रमाण घटकर पांच से दस का होता गया। इस दौरान भी ‘दिल’, ‘बेटा’, ‘खेल’, ‘हमदोनों’, ‘हकीकत’, ‘राजा’ जैसी फ़िल्मों में उनका अभिनय सराहा गया था। फ़िर बढती उम्र के साथ चार बेटीओं के पिता सत्येन जी ने अपने स्वास्थ्य के चलते काम कम भी कर दिया था। वर्ष २००० के आते आते वे एक सिनीयर चरित्र अभिनेता हो गए थे। अब यदा कदा फ़िल्में करने वाले सत्येन कप्पु का २००७ की २७ अक्तुबर के दिन ७६ साल की उम्र में निधन हो गया। मगर उनके अभिनय से हमारे सिनेमा के परदे पर सत्येन कप्पु जी हमेशा जिन्दा ही हैं।






1 comment:

  1. Boss, salute to you, thanks for sapru, premnath, satyenji, plz continue these type of articles,

    ReplyDelete