Thursday, August 29, 2013

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं.... उत्पल दत्त



उत्पल दत्त: हिन्दी फ़िल्मों में बंगाल के सिद्धहस्त कलाकार!



उत्पल दत्त हिन्दी सिनेमा में अत्यंत व्यस्त काफी देर में हुए थे, वैसे बंगाली रंगमंच तथा सिनेमा में उनका बडा नाम था। उन्होंने हिन्दी फ़िल्मों की अपनी लंबी सूची  में बहुधा हास्यप्रधान भूमिकाएं की थी। मगर अमिताभ बच्चन की प्रथम फ़िल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ में वे भी एक ‘हिन्दुस्तानी’ थे। बल्कि एक तरह से देखा जाय तो उत्पल जी ही मुख्य भूमिका में थे और अमिताभ बच्चन समेत अन्य सभी कलाकार सहायक थे! उसी तरह से ’७० के दशक में भारतीय समांतर सिनेमा की नींव जिन फ़िल्मों से रखी गई थी, उन प्रमुख कृतियों में ‘भुवन शोम’ भी थी और उसके नायक भी उत्पल दत्त थे। इस फ़िल्म के अभिनय के लिए उत्पल जी को वर्ष १९७० में श्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। मगर हिन्दी सिनेमा में उनको भरपूर प्रतिष्ठा और काम  ऋषिकेश मुकरजी की ‘गोलमाल’ से मिली, जो न आर्ट फ़िल्म बनाते थे और न ही कमर्शियल  फ़ार्मुला पिक्चर।


‘गोलमाल’ में ऋषिदा ने उत्पल दत्त की गंभीर छवी के विपरित ‘भवानीशंकर’ के एक ऐसे पात्र की भूमिका दी, जिन्हें  मूछों से लगाव था। हीरो अमोल पालेकर से लेकर दीना पाठक तक के सभी अदाकारों का हास्य अभिनय आज भी एक मिसाल है। मगर उत्पल दा गंभीर रहकर भी इतना हंसा गए थे कि उस वर्ष ‘बेस्ट कमेडियन’ का  फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड उन्हें मिला था। जिस अंदाज़ से “अच्छाआ...” बोलते थे, वो उनका ट्रेड मार्क बन गया था। आज भी मिमिक्री आर्टिस्ट उस तकिया कलाम को बोलते हैं, तो दर्शक समज जाते हैं कि वह उत्पल दत्त की नकल कर रहे हैं। हिन्दी फ़िल्मों में फिर तो उनको हलकी फुलकी भूमिकाएं मिलतीं गईं। तब ये कौन सोच सकता था कि बंगाली और हिन्दी मनोरंजन जगत के इस दिग्गज अभिनेता ने अपना करियर अंग्रेजी रंगमंच से शुरु किया था!

उसका एक कारण यह था कि उत्पल दत्त इंग्लीश भाषा को मुख्य विष्य रखकर  ग्रेज्युएट हुए थे। वे स्कूल के जमाने से ड्रामा ग्रुप बनाकर अंग्रेजी नाटक करते थे। १९२९ में जन्मे इस कलाकार ने १८ साल की उम्र में तो अपने स्टेज के परफार्मन्स से अंग्रेजी  रंगमंच के अग्रीम कलाकार जेफरी केन्डाल को इतना प्रभावित किया था, कि उन्हों ने अपने ग्रुप में शामिल कर लिया। १९४७ से १९५३ तक केन्डाल परिवार भारत में जहाँ भी अपने नाटक करते उत्पल दत्त उन के साथ थे। सिनेमा प्रेमी जानते ही होंगे कि ‘शेक्सपियराना’ नाट्य संस्था से प्रसिद्ध केन्डाल परिवार की ही बेटी जेनिफर बाद में १९५८ में शादी कर के श्रीमती शशि कपूर हुईं थीं।



मगर उत्पल दत्त को ऐसे किसी भी संदर्भ से नहीं मगर रंगमंच और फ़िल्मों में उनके योगदान से ही पहचानना चाहिए। क्योंकि शुरु में अगर उनका अंग्रेजी प्रेम इतना था तो बाद में बंगाली भाषा को भी उन्हों ने अपनी सृजनशीलता से कई अच्छे अच्छे नाटक दिए। वे लोगों का सिर्फ मनोरंजन करने वाले कलाकार कहाँ थे? उनकी अपनी एक विचारधारा थी, जो साम्यवाद से प्रभावित थी और अपने नाटकों में वे उसको भी बुन लेते थे। परिणाम ये आया कि ’६५ में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस सरकार ने उत्पल दत्त को उनके एक नाटक ‘कल्लोल’ के कारण पकडकर कुछ महिने कारावास में रखा था। ‘कल्लोल’ की वार्ता १९४६ में हमारे  नौकादल ने ब्रिटीश सरकार के विरुद्ध जो विद्रोह किया था, उस की थी। मगर उसे सांप्रत समय के साथ भी जोडा जा सकता था।  उन दिनों देशभर के बुद्धिजीवीओं और रंगकर्मीओं के आंदोलन के बाद उत्पलजी रिहा हुए थे। १९६७ के चुनाव में बंगाल में कांग्रेस हारी थी और अजोय बोस के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी, उस ऐतिहासिक चुनाव में ‘कल्लोल’ जैसी कृतियों का भी योगदान माना जाता है।

इस लिए जब ‘भुवन शोम’ और ‘सात हिन्दुस्तानी’ के साथ अखिल भारतीय दर्शकों के सामने उत्पल दत्त पेश हुए, तब एक काफी चर्चित कलाकार की उनकी प्रतिष्ठा हो चूकी थी। ’७० के दशक में ऋषिकेश मुकरजी ने उन्हें ‘गुड्डी’ जैसी मध्यम मार्ग की हिन्दी फ़िल्म से प्रस्तुत किया, तब उनकी गंभीर प्रतिमा नहीं बल्कि एक हल्के फुल्के चरित्र अभिनेता की इमेज प्रस्थापित की। ‘गुड्डी’ जया बच्चन की प्रथम हिन्दी फ़िल्म थी और उस में ‘प्रोफेसर गुप्ता’ बनकर उत्पलजी जिस खुबी से फिल्मों के ग्लेमर से एक के बाद एक पर्दा हटाते हैं; उस अभिनय  के बारे में, उन दिनों के एक समीक्षक ने ‘गुड्डी’ की समीक्षा में लिखा था कि  “वह एक्टींग नहीं लगती”।

यही उत्पल दत्त जी की विशेषता थी। अगर ‘गोलमाल’ में आप उन्हें एक विचित्रताओं से भरे ‘भवानीशंकर’ की भूमिका में देखें तो लगे कि असल ज़िन्दगी में भी वे ऐसे ही होंगे और ‘शौकिन’ में एक एक पैसे का हिसाब रखने वाले कंजुस भी उतने ही स्वाभाविक लगते थे। उनके हास्य अभिनय को ऋषिदा से ज्यादा शायद ही किसी अन्य निर्देशक ने काम में लिया होगा। ‘गोलमाल’ की तरह ‘नरम गरम’ में भी उन की जोडी अमोल पालेकर के साथ थी और उस में भी उन्हें ‘श्रेष्ठ हास्य अभिनेता’ का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ऋषिदा की ही ‘रंगबिरंगी’ ने भी उत्पल दत्त को वही एवार्ड फिर एक बार दिलवाया था। किसी एक ही निर्देशक के डीरेक्शन में किसी एक विभाग में तीन ट्रॉफियां जीतने का यह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में शायद विक्रम होगा!

इतने पुरस्कार के साथ साथ हिन्दी सिनेमा के एक अनिवार्य मानदंड यानि टिकट खिडकी पर भी उत्पल दत्त उतने ही खरे उतरते थे। मसलन बॉक्स ऑफिस पर हीट होने वाली फ़िल्मों का वे हिस्सा होते थे। उनकी हिन्दी फ़िल्मों की सूची में ‘जुली’, ‘ग्रेट गेम्बलर’, ‘बात बन जाये’, ‘इन्किलाब’, ‘किसी से न कहना’, ‘अमानुष’, ‘इमान धरम’, ‘आनंद आश्रम’, ‘अनुरोध’, ‘प्रियतमा’, ‘दुल्हन वोही जो पिया मन भाये’, ‘स्वामी’, ‘येही है ज़िन्दगी’, ‘कोतवाल साहब’, ‘दो अन्जाने’, ‘संतान’, ‘शक’, ‘अनाडी’, ‘सदा सुहागन’, ‘मैं बलवान’, ‘साहेब’, ‘महावीरा’, ‘लाखों की बात’, ‘जहोन जानी जनार्दन’, ‘अच्छा बुरा’, ‘बहुरानी’, ‘जवानी ज़िन्दाबाद’, ‘कर्तव्य’, ‘अपने पराये’, ‘प्रेम विवाह’, ‘राम बलराम’, ‘बरसात की एक रात’, ‘हमारी बहु अलका’, ‘अग्नि परीक्षा’, ‘अंगूर’ इत्यादि।




उत्पल दत्त ने न सिर्फ कॉमेडी रोल में अपने आप को श्रेष्ठ साबित किया, जब कभी भी उन्हें नकारात्मक भूमिका में लिया गया, वहाँ खलनायिकी भी उतनी ही सहजता से की थी। उनकी बंगाली फ़िल्में भी विविधता से भरी हैं। मगर उत्पल दत्त का रंगमंच का योगदान इन सब के उपर गिना जाना चाहिए। रंगमंच की एक प्रतिष्ठित संस्था इन्डियन पिपल्स थियेटर्स एसोसीएशन ‘इप्टा’ के स्थापक सभ्यों में से एक थे उत्पल दत्त। उनके नाटक विचार करने पर मजबुर करने वाले होते थे। तो बंगाल का एक विशीष्ट नाट्य प्रकार ‘जात्रा’ करने के लिए गाँव गाँव और शहर शहर जाने वाले इस कर्मठ रंगकर्मी की याद में उनके निधन के बाद ‘उत्पल दत्त नाट्योत्सव’ भी होता था।

बंगाली में सत्यजीत राय से लेकर मृणाल सेन तक के सिद्ध और प्रसिद्ध निर्देशकों के वे प्रिय अभिनेताओं में से एक थे। फ़िल्मों में प्रॉफेसर या प्रिन्सीपाल का रोल स्वाभाविकता से करने वाले उत्पल दा फ़िल्मों में आने के बाद भी कई बरसों तक अंग्रेजी विषय के अध्यापक रहे थे।  हिन्दी पर्दे पर कभी पिता तो कभी चाचा, कहीं डॉक्टर तो कहीं सेठ,  कभी बुरे तो बहुधा अच्छे बने उत्पल दा को दर्शक किसी भी रूप में नहीं भूल सकेंगे। अभी इस साल विद्या बालन की फ़िल्म ‘घनचक्कर’ के बेंक रोबरी सीन में इमरान हाश्मी अपने चेहरे पर उत्पल जी के चेहरे का सिर्फ मोहरा लगाकर घुमते हैं और फिर भी जब जब उत्पल दत्त का चेहरा पर्दे पर दिखता है, तब तब दर्शक हंसते हैं। ऐसे सहज स्वाभाविक कलाकार का, १९९३ में सिर्फ ६४ साल की आयु में देहांत हो गया। मगर उनकी अनेक भूमिकाओं के जरिये उत्पल दत्त आज भी हम सब के बीच जिन्दा ही हैं।  









2 comments:

  1. No Words .....G R E A T tribute by you to UTPAL DUTTji...

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  2. I Love it the way you take out brilliant character actors out in life.... I mean all and everyone just keep talking about main lead Actor or Actress but you bring these actors of in life and new generation's can learn so much about it.......love it Salilbhai.....

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