Wednesday, September 11, 2013

ये आज भी ज़िन्दा ही हैं.... बलराज साहनी (२)



बलराज साहनी (२) : सिद्धांतो के लिए जैल भी जानेवाले कलाकार!



चरित्र अभिनेता बनने के बाद भी बलराज साहनी का अभिनय के प्रति रवैया वही स्वाभाविक एक्टींग वाला ही रहा। ‘छोटी बहन’ में नंदा के बडे भैया की मुख्य भूमिका में वे जितने स्वाभाविक लगते थे, उतने ही सहज ‘दो रास्ते’ में राजेश खन्ना और प्रेम चोपडा के बडे भाई की चरित्र भूमिका में भी। ‘दो रास्ते’ में घर में हुए बंटवारे के बाद उन्हें अकेले में के.एल. सहगल के स्वर में “इक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा इस में प्यारा....” सुनते देखो, तो संयुक्त परिवार में आती दरार से विचलित एक बडे भाई का दर्द दिखता है।




उनका एक ऐसा ही यादगार चरित्र दिलीप कुमार की ‘संघर्ष’ में था। दो परिवारों के वैमनस्य का हिस्सा बनते ‘गणेशी प्रसाद’ की भूमिका में उन्हें कोई नहीं भूल सकता। उनकी फ़िल्मों में ‘दुनिया’, ‘पेहचान’, ‘मेरे हमसफ़र’, ‘होली आई रे’, ‘धरती’, ‘पराया धन’, ‘नीलकमल’, ‘नन्हा फ़रिश्ता’, ‘घर का चिराग’, ‘नौनिहाल’, ‘अमन’, ‘हमराज़’, ‘आये दिन बहार के’, ‘आसरा’, ‘फ़रार’, ‘पिंजरे के पंछी’, ‘अनपढ’, ‘बंटवारा’, ‘शादी’, ‘घरसंसार’ ‘जवानी दीवानी’, ‘हिन्दुस्तान की कसम’, ‘हंसते ज़ख्म’, ‘इज्जत’, ‘घर घर की कहानी’... इत्यादि।



‘घर घर की कहानी’ में भी ‘दो रास्ते’ की तरह घर के बडे की भूमिका में वे थे। तो ‘दुनिया’ में एक वकील बने थे।  ‘जवानी दीवानी’ में रणधीर कपूर के शिस्त पसंद बडे भाई तो ‘हमराज़’ के पुलिस अफसर बनने वाले बलराज साहनी असल ज़िन्दगी में सचमुच जेल गए थे और वो भी आज़ाद भारत में! स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में साम्यवादी विचारधारा के प्रति सरकार का रुख कडा था। फिर ये तो इन्डियन पिपुल्स थियेटर एसोसीएशन (इप्टा) जैसी लैफ्टिस्ट संस्था से जुडे कलाकार। आज़ादी के तुरंत बाद १९४९ में लोगों के एक मोरचे में बढकर हिस्सा लेने के कारण सरकार ने बलराज साहनी को गिरफ़्तार कर जैल में डाल दिया।


जेल में बलराज जी को ६ महिने तक रहना पडा। उस समय दिलीप कुमार और नरगीस के साथ बन रही उनकी एक फ़िल्म ‘हलचल’ की शूटींग के लिए बलराज साहनी को जेल से जाने देने की इजाजत निर्माता के.आसिफ़ ले आये और बडा ही दिलचश्प द्दश्य उन दिनों होता था। जेल में कैदी की हैसियत से जेलर के हुक्मों का पालन करने वाले बलराज जी ‘हलचल’ के सेट पर आ कर क्या रोल निभाते थे? जैलर का! उसी तरह एक दिन शूटींग के लिए पुलिस के साथ वे स्टुडियो पहुँचे, तब पता चला कि नरगीस जी की अम्मीजान जद्दनबाई का देहांत होने की वजह से शूटींग बंद था। उन दिनों बलराज साहनी पर जद्दनबाई का एक विशेष उपकार था।


जद्दनबाई को जब भी बलराज जी के शूटींग के दिन का पता चलता, वे उनकी पत्नी तथा बच्चों को घर से अपनी गाडी में ले आतीं और साहनी परिवार मेक अप रूम में मिल सकता था। उनके अंतिम दर्शन किये बिना वापस लौटना नहीं था। किसी तरह पुलिस अधिकारी को समझा कर कुछ देर के लिए वहाँ गए तो सही, मगर फ़िल्म वालों के रवैये से  दुःखी होकर लौटे। क्योंकि आर्थर जैल से आए उस ‘कैदी’ और कम जाने माने एक्टर के साथ, एक मात्र दुर्गा खोटे के अलावा, उपस्थित पूरी फ़िल्म इन्डस्ट्री में से किसी भी सहकलाकार ने बात तक नहीं की! उस समय अभी बलराज जी नए नए आये थे और असमंजस में थे कि सिनेमा की दुनिया में रहें या नहीं। अभिनय भी उनकी पहली पसंद कहाँ थी? वे तो लेखक थे। उनकी पंजाबी कहानियाँ और प्रवास की किताबें (‘रुस का सफ़रनामा’ और ‘पाकिस्तान का सफर’) रोचक थीं। यहाँ तक कि वे सॅट पर भी अपना टाइप राइटर ले जाते थे और गुरमुखी में टाइप करते थे।
 
मगर उस एक अनुभव से उन्होंने तय कर लिया कि फ़िल्म जगत में अपना अच्छा नाम बनाना ही अब उनका मकसद रहेगा और क्या नाम बनाया! वो भी अपने क्रान्तिकारी विचारों से समझौता किये बगैर। क्रांतिकारी विचारधारा को फ़िल्म उद्योग में भी वे अमल में रखते थे। शायद कम लोगों को पता होगा कि बलराज जी लंच के समय ‘स्टार’ की तरह अलग बैठकर भोजन नहीं लेते थे। वे स्टुडियो के सभी कामगारों के साथ बैठकर खाते थे। इस लिए आज़ादी के बाद हमारे देश के मज़दुरों और किसानों की स्थिति में सुधार के लिए वैचारिक रूप से कार्यरत सभी बडे साहित्यकारों से बलराज साहनी के निजी संबंध थे। उन सभी ने मिलकर अमृतसर के नज़दीक ‘प्रीतनगर’ नामक हाउसींग सोसायटी बनाई थी। ये नाम एक पत्रिका ‘प्रीतलडी’ से लिया गया था, जिस के संपादक किसी ज़माने में साहिर लुधियानवी भी रह चूके थे। उस प्रीतनगर में ‘टाइम्स ऑफ इन्डिया’ के मुताबिक साहिर के अलावा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृता प्रितम औए बलवंत गार्गी जैसे साहित्यकारों ने अपने घर बनाये थे। पिछले दिनों ये खबर आई थी कि बलराज साहनी के उस घर को स्मारक के रूप में रखने का प्रयास कुछ लोग कर रहे हैं। 



वैसे तो बलराज साहनी के वारिस सुपुत्र परिक्षित साहनी ने भी ‘दीदार’ में दिलीप कुमार के बचपन की भूमिका से लेकर ‘गुल गुलशन गुलफ़ाम’ और ‘ग्रेट मराठा’ जैसी सिरीयलों तक अभिनय की विरासत को आगे ही बढाया है। उनका नाम ‘परिक्षित’ गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दिया था। क्यॉंकि शांतिनिकेतन में बलराज साहनी की पत्नी दमयंति जी अपनी सगर्भावस्था के दौरान बी.ए. की परीक्षा के लिए पढाई करती रहती थी। दमयंति जी एक खुबसुरत अभिनेत्री भी थीं, जिन्होंने पृथ्वीराज कपूर के विख्यात नाटक ‘दीवार’ में भी काम किया था।


मगर बलराज जी की असली स्मृति तो सिनेमा के ‘लाला केदारनाथ’, ‘सलीम मिर्ज़ा’ और ‘शंभु महातो’ जैसे उन किरदारों में रहेगी जो अभिनय के पाठ्यपुस्तक समान हैं। उनके अभिनय का सबसे मजबुत अंग था बिना मेलोड्रामा (अति-नाटकीयता) किये किसी द्दश्य में सही भावनाओं को पर्दे पर उभारना। उन्हें अति-नाटकीयता का मौका ‘गर्म हवा’ में एक से अधिक बार था। मगर उस फ़िल्म को देखने वाले ‘सलीम मिर्ज़ा’ बने बलराज साहनी का अत्यंत संयमित अभिनय कभी नहीं भूल सकते।

‘गर्म हवा’ की कहानी में देश के विभाजन और उससे जुडे सवालों की पृष्ठभूमि थी, जिसका बलराज साहनी को प्रथमदर्शी अनुभव था। क्योँकि बलराज जी का जन्म १ मई १९१३ को रावलपिंडी में हुआ था। (इस लिए इस वर्ष उनकी शताब्दि कला विषयक चर्चाओं तथा रंगमंच के निर्माणों से खुब मनाई जानी चाहिए.... मगर अफसोस! दिल्ही में इक्का-दुक्का प्रोग्रामों को छोड फ़िल्मी दुनिया में कहीं कोई खास कार्यक्रम नहीं हुए।) उन्होंने पढाई, अब पाकिस्तान का हिस्सा बने, लाहोर शहर के गवर्न्मेन्ट कालिज से की थी। परिणाम स्वरूप विभाजन से प्रभावित अन्य लोगों की तरह बलराज जी भी उस त्रासदी से अछूते नहीं रह पाए थे।

शायद यही वजह थी कि ‘गर्म हवा’ में ‘सलीम मिर्ज़ा’ की भूमिका के दर्द को पर्दे पर अभिनित करते समय वे प्रयास करते नहीं लगते हैं। उस अभिनय को सराहना भी खुब मिली थी। परंतु, विभाजन के बाद पाकिस्तान गए और भारत में रहे मुसलमानों की समस्याओं को दर्शाती निर्देशक एम.एस.सथ्यु की इस फ़िल्म से देश में धार्मिक तनाव होगा इस डर के चलते, सॅन्सर बोर्ड ने काफी समय तक उसे मंजुरी देने से रोका था। लेकिन रिलीज़ के बाद न तो दंगे हुए न तनाव और मज़े की बात ये हुई कि उसी फ़िल्म को ‘राष्ट्रीय एकता बढाने के लिए’ वर्ष १९७४ का नेशनल एवार्ड दिया गया! उसी फ़िल्म को ऑस्कर एवार्ड के लिए भी हमारे देश की तरफ से भेजा गया था। 


वही ‘गर्म हवा’ बलराज साहनी की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। क्योंकि उनकी बेटी शबनम की युवा वय में अचानक हुई मौत का सदमा यह संवेदनशील पिता शायद नहीं सह पाये। फ़िल्म ‘नीलकमल’ में अपनी बेटी (वहीदा रेहमान) की बिदाइ के एक अमर गीत “बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...” में हम सब को रुलाने वाले इस महान अभिनेता का १९७३ की १३ अप्रैल के दिन सिर्फ़ ६० साल की उम्र में निधन हो गया। परंतु, अपने समतोल स्वाभाविक अभिनय वाले हर पात्र से बलराज साहनी जी आज भी ज़िन्दा ही हैं।


 

4 comments:

  1. SIR, please write somthing about BRENGENZA.

    ReplyDelete
  2. bahu saras... majaa aave chhe.. jaane vaachyaa ja kareeye.....

    ReplyDelete
  3. નમસ્કાર સલિલસર.. હમણા તમારા બ્લોગ વિષે જાણકારી મળી એટલે ૨૦૧૦થી લઈને અહીં સુધી પહોંચ્યો. બહુ જ ઉત્તમ સિરિઝ તમે લખી. કાબુલીવાલાનું બહુ પ્રખ્યાત ગાયન "એ મેરે પ્યારે વતન" વિષે કંઈક આવ્યું હોત તો તો ઔર જામત (જો કે બધા વાચક્ની ઇચ્છાઓ પૂરી કરવા રહીયે તો બ્લોગ પૂરો જ ના થાય.. ખરુંને?)..ખૂબ ખૂબ આભાર.

    ReplyDelete
  4. આભાર ગોપાલભાઇ... બ્લોગના લેખો વાંચવા બદલ ખુબ ખુબ આભાર. આશા રાખું છું કે નવા લેખ પણ વાંચતા હશો જ. નિયમિત વાચક મિત્રોના અભિપ્રાય અને ટીપ્પણીઓ મને ખુબ સહાયક થાય છે. ફરી એકવાર આભાર.

    ReplyDelete