बलराज साहनी
‘स्टार’ या ‘हीरो’ नहीं.....
पात्र में घुल जाने वाले एक स्वाभाविक अभिनेता!
बलराज साहनी को याद
करते ही ‘वक्त’ के गीत “अय मेरी जोहराजबीं तुझे मालुम नहीं....”
गाते ‘लाला केदारनाथ’ के पात्र में स्मृति
में आना स्वाभाविक है। क्योंकि १९६५ में आई उस फ़िल्म का यह गाना शादी जैसे मौकों पर
सिनीयर्स को आज भी झूमने पर मजबूर कर देता है। उस के बोल तो साहिर लुधियानवी ने सदा-जवां
लिखे ही थे, मगर बलराज जी ने एक पंजाबी लालाजी को जिस अंदाज़ से ‘वक्त’ में प्रस्तुत किया था, उस व्यक्तित्व
का भी इस शीघ्र स्मरण में योगदान है। याद है न, ‘वक्त’ के लालाजी जिस अभिमान से अपने बच्चों को “आओ मेरे शहजादों....”
कहकर बुलाते हैं?
उन्ही बलराज साहनी
को ‘वक्त’ ही में जेलर से बात करते हुए
अपने बिछडे परिवार की सलामती की दुआ करते देखो, तो वक्त के थप्पड से आई नम्रता का अभिनय
भी दिल को छु जाता है। मगर हमें तो फ़िल्म के अंत में जब राजकुमार उन्हें उनके परिवार
के बिछडे सदस्यों से मिलाने की बात करते हैं तब का बलराज साहनी का अभिनय सर्वोत्कृष्ट
लगा था। आंख में आंसू लिये जिस भाव से वे बोल उठते हैं “मैं तेरा मुँह मोतिओं से भर दूँ, ज़िन्दगी भर तेरी गुलामी करुं...”! बलराज साहनी के अभिनय की यही विशेषता थी कि
हर किरदार में वे ऐसे समा जाते थे कि दो विरोधाभासी अभिनय में भी पात्रों को एक सा
न्याय कर सकते थे। जैसे कि ‘दो बीघा ज़मीन’
और ‘तलाश’।
‘दो बीघा ज़मीन’ के पात्र ‘शंभु महातो’ के लिए बलराज साहनी का सुझाव
बिमलदा के सहायक और बाद में कॉमेडियन बने असित सेन ने दिया था। ऐसा ऍक्टर ले आने के
लिए उन्हें भी बॉस की डांट बंगाली में खानी पडी थी। मगर बलराज जी बंगाली समजते थे।
उन्होंने बिमल रॉय को बताया कि एक नाटक ‘धरती
के लाल’ में वे किसान की भूमिका कर चुके थे। तब बिमलदा ने अपने सहायक ऋषिकेश मुकरजी
को कहानी सुनाने का काम दिया और बलराज साहनी के हिस्से वो अमर रोल आया। उस में कलकत्ता
की सडकों पर रिक्षा खींचने का काम करना था। बलराजजी उस के लिए काफी अरसा उस शहर में
रहे और बाकायदा रिक्षा खींचना सीखे थे! जब वे कलकत्ता की सडकों पर प्रैक्टिस के लिए
रिक्षा चलाते थे, तब बैठने वाले मुसाफिरों को पता नहीं होता था कि उनका रिक्षा चालक
एक पढा-लिखा अंग्रेजी का प्राध्यापक रह चूका
अभिनेता था।
बलराज साहनी अभिनेता
बनने से पहले बी.बीसी.रेडियो के उद्घोषक रह चूके थे और पांच साल इंग्लेन्ड रह कर आये
थे। रावलपिंडी में जन्मे और अंग्रेजी के विषय में अनुस्नातक (एम.ए.) हुए इस कलाकार
का मूल नाम ‘युधिष्ठिर’ था। उनके पिताजी ने महाभारत के पात्रों से नाम लेते हुए अन्य बेटे का नाम ‘भीष्म’ रखा था। उन्ही भीष्म साहनी
की लिखी कथा पर से गोविन्द निहलानी ने ‘तमस’
सिरीयल बनाई थी, जो देश के विभाजन समय के माहौल की एक अमर रचना है। खुद बलराज साह्नी
भी अच्छे लेखक थे। उनकी कहानीयाँ ‘हंस’ सामयिक में प्रसिद्ध होती रहती थी। कुछ अरसा
वे नहीं लिख पाये और फिर एक वार्ता लिखकर ‘हंस’ को भेजी। लेकिन इस बार वो कहानी अस्वीकृत
हुई!
इस घटना से वे इतने
विचलित हो गए कि एक आलेख में उन्होंने लिखा था कि फिल्मों की तरफ मुडने में उस वार्ता
का अस्वीकृत होना भी जिम्मेदार था। (सार: संपादकों की अस्वीकृति से नाराज नहीं होना
चाहिए!) फ़िल्मों में अभिनय करते वक्त अपना नाम ‘युधिष्ठिर’ से बदलकर ‘बलराज’ कर दिया।
मजे की बात देखिए कि उन्हीं की तरह रेडियो पर उद्घोषक की नौकरी करने वाले ‘बलराज दत्त’
ने अभिनेता बनने पर अपना नाम ‘सुनिल दत्त’ कर दिया था। बलराज साहनी का अंग्रेजी साहित्य
और भाषा पर इतना अच्छा प्रभुत्व था कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में
इंग्लिश के प्रोफेसर चुने गये। वहाँ अंग्रेजी के प्राध्यापक की हैसियत से भी कुछ साल
काम किया था। अब पाठकों की समज में आ गया होगा कि बिमल रॉय ने जब असित सेन को बंगाली
में “ये किसे ले आये हो?’ जैसा कुछ कहा, तब पंजाबी बलराज साहनी उस वार्तालाप को क्यों
समज गए होंगे।
परंतु, फ़िल्मों के
सेट पर वे कभी इस बात का रौब नहीं झाडते थे कि वे कितने विद्वान हैं। वरना मात्र गुरुदेव
ही नहीं, गांधीजी के साथ सेवाग्राम में भी वे रहे थे। इतना ही नहीं स्वतंत्रता संग्राम
में भी जुडे थे। दिल्ही में अल्प सुविधा प्राप्त (अंडर प्रिविलेज्ड) बच्चों के लिए
पहला पुस्तकालय और वो भी ’५० के दशक में बनाने वाले भी बलराज साहनी थे। मगर इन बातों
का कभी ज़िक्र तक नहीं करते थे। बल्कि हर भूमिका के लिए वे इतनी ही मेहनत करते थे। अगर ‘दो बीघा ज़मीन’ के लिए वे जोगेश्वरी के भैयाओं
के रहन सहन का अभ्यास करते थे तो ‘काबुलीवाला’
के पठाण का पात्र निभाने के लिए बलराज साहनी सायन में हफ्तों पठाणों के साथ मिलजुल कर उनकी तरह बोलना सीखे थे।
उसी तरह से चेतन आनंद की ‘हकीकत’ में फौज
के अधिकारी बनने से पहले उनके तौर तरीकों की तालीम आर्मी के अफसरों से ली थी। ये कोई
छोटी बात नहीं है। एक फ़िल्म के पात्र में अधिकृतता लाने के लिए अपने आप को इस कदर ढाल
देना; ऐसा उन दिनों में भी कितने कलाकार करते होंगे?
इस लिए बलराज साहनी
कभी भी एक्टींग करते नहीं लगते थे। उनके अभिनय में एक स्वाभाविकता थी, जिस के कारण
नसीरुद्दीन शाह जैसे अत्यंत प्रतिभावंत अभिनेता के बलराज साहनी (और हिन्दी सिनेमा में सहज अभिनय लाने
वाले प्रथम अभिनेता मोतीलाल) प्रिय एक्टर हैं। साथ ही इतनी अच्छी एक्टींग का वो गुमान
भी नहीं कि गाना-वाना न गाये! लिहाजा फ़िल्म में उन्हें जो भी गाना मिला, उस गीत को
बलराज जी ने उतने ही अच्छे ढंग से निभाया। ‘अय
मेरी जोहराजबीं...’ की तरह ही ‘सीमा’
का उनका गाना “कहाँ जा रहा है, तु अय जाने
वाले...” हो या ‘एक फुल दो माली...” का “तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा,
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा...” किसी में भी सौ प्रतिशत से कम
योगदान नहीं रहा है।
हाथ कंगन को आरसी क्या? इस विडीयो में ही देख लें....!
A Great Actor
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