डेवीड
‘जहोन चाचा’ तुम कितने प्यारे, तुम्हें प्यार करते सब दर्शक!
‘जहोन चाचा’ तुम कितने प्यारे, तुम्हें प्यार करते सब दर्शक!
शाहरूख खान को आज हर तीसरे एवार्ड समारोह का संचालन
करते देख पुराने समय के ऐसे ‘मास्टर ऑफ सॅरिमनी’ (एम. सी.) चरित्र अभिनेता डेवीड की
याद ताजा हो जाती है। डेवीड और जयराज दो अभिनेताओं कई साल तक ‘फ़िल्मफ़ेयर’ पुरस्कार
वितरण समारोह के ‘एम. सी.’ होते थे। फ़िल्म उद्योग जिस कार्यक्रम का बेसब्री से इन्तजार
करता था, वह सालाना जलसा डेवीड की मजाक-मस्ती के बिना अधूरा लगता था। समारोह में आती
लगभग हर स्टार-नायिका से डेवीड अपने गाल पर एक चुंबन हंसते हंसते ले लेते थे और इन्डस्ट्री
के आजीवन अपरिणित रहे उन ‘डेवीड अंकल’ को कोई हिरोइन इनकार भी नहीं करतीं थीं।
लेकिन ऐसा भी नहीं
था कि वे सिर्फ़ कार्यक्रमों के अच्छे संचालक ही थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी वे
उतने ही सक्षम थे, जिसका जीता-जागता उदाहरण उनका ‘बुट पॉलीश’ फ़िल्म का अभिनय था। उस फ़िल्म के अमर पात्र ‘जहोन चाचा’ के
लिए उन्हें ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेता’ का ‘फ़िल्मफ़ेयर’ पुरस्कार प्राप्त हुआ था, जो शुरु
उन प्रारंभिक वर्षों में ‘टाइम्स ऑफ इन्डिया’ के फ़िल्म विवचक क्लेइर के नाम से ‘क्लेइर
एवार्ड’ कहे जाते थे। ‘बुट पॉलीश’ में बैसाखी के सहारे चलने वाले अपाहिज ‘जहोन चाचा’
की महत्वपूर्ण भूमिका में डेवीड को अपनी अभिनय क्षमता के विविध रूप दिखाने के काफी
मौके थे और उन्होंने जी भर कर उन्हें दिखाया था।
‘जहोन चाचा’ के हिस्से
राज कपूर की उस हेतुपूर्ण फ़िल्म ‘बुट पॉलीश’ में जितने गाने आये थे, वे भी डेवीड ने
बडी खुबी से पर्दे पर गाये। अगर “नन्हे मुन्ने
बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है?...” में गरीब बस्ती के बच्चों को भीख की नहीं मेहनत
की रोटी खाने का संदेश देना था तो उनका अभिनय ‘गुरु’ जैसा था। तो जब जेल में सारे गंजे
कैदीओं के सर पर तबला बजाते हुए “लपक झपक तु
आ रे बदरवा, सर की खेती सुख रही है...” विनोदी शब्दों वाला गाना गाते समय एक कॉमेडियन
सी एक्टिंग करते थे। एक अन्य गीत “रात गई फिर
दिन आता है, इसी तरह आते जाते ही ये सारा जीवन जाता है...” को भी याद करने जैसा
है, जिस में ये पंक्ति भी आती थी, जो डेवीड साहब की पेहचान जैसी थी, “जहोन चाचा तुम कितने अच्छे, तुम्हें प्यार करते
सब बच्चे”। उस गीत की पराकाष्टा में जब प्रिय कवि शैलेन्द्र की कलम से ‘हर व्यक्ति
(बच्चा) अनूठा है’ इस बात को कहते ये शब्द “तु
एक है प्यारे लाखों में, तु बढता चल...” शंकर जयकिशन की दमदार धून पर एक फौजी की
अदा से गाते डेवीड आज भी भूले नहीं भूलाते।
उस गाने का अंत “ये रात गई, वो सुबह नई...” जैसे आशा से
भरे शब्दों से होता है और पर्दे पर झोंपडपट्टी के बच्चों को आने वाले सुख के दिनों
के प्रतिक सा सूर्योदय दिखाते जहोन चाचा! कोई आश्चर्य नहीं था कि ‘बुट पॉलीश’ के लिए निर्माता राज कपूर को
‘बेस्ट पिक्चर’ का भी एवार्ड दिया गया था और कान्स इन्टरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टीवल में भी
उसे खुब सराहना मिली थी। (समाज को दिशा दिखाने वाले ऐसे चलचित्र अब क्यॉं नहीं बनते
होंगे?)
‘जहोन चाचा’ की भूमिका
में डेवीड प्रभु इसु की प्रार्थना करते इसाई बने थे और असल ज़िन्दगी में भी वे २१ जुन
१९०९ के दिन एक यहुदी परिवार में जन्मे डेवीड अब्राहम थे। बचपन में अपने पिता की छत्रछाया
खो देने की वजह से उनके लिए बडे भैया ही सब कुछ थे, जो नाटक और खेलकूद में काफी दिलचश्पी
रखते थे। डेवीड भी अखाडे में कसरत से शरीर सौष्ठव बनाने में लगे। क्रिकेट तथा अन्य
खेलों में भी महारत हासिल की। ये बात कम लोग जानते होंगे कि डेवीड अच्छे बेट्समेन और
बॉलर के अलावा क्रिकेट के कॉमेन्ट्रीकर्ता भी थे। बाद के वर्षों में एशियाइ खेलों में
‘जज’ की कार्यवाही कर चूके खेलविद थे। उन्हों ने ओलिम्पिक में भारत के प्रतिनिधि के
रूप में भी काम किया था। इतना ही नहीं, बी.ए. की पढाई के दिनों में वे अपने विल्सन कालिज की तरफ से
वक्तृत्व स्पर्धाओं में भी ट्रोफीयां जीतते थे। परिवार के लोग उन्हें वकील बनाना चाहते
थे और वे उस के लिए तालिमबद्ध भी हुए थे।
इस लिए जब करियर की
पसंद का सवाल आया तब डेवीड के पास वकालत, खेलकूद और अभिनय जैसे तीन तीन विकल्प थे।
उनकी इन अनेकविध क्षमताओं को जानते निर्देशक
डी.पी.मिश्रा ने अपनी मूक फ़िल्म ‘सायक्लोन
गर्ल’ की शूटिंग के दौरान अपने नये अभिनेता को ताना देते हुए कहा था, “वकीली कर...”!
परंतु, ऐसे तानों से डेवीड साहब कहाँ हार मानने वाले थे? उस मूक फ़िल्म से शुरु हुई
उनकी अभिनय यात्रा में फिर तो कितनी सारी भूमिकाएं उनके हिस्से आईं। उनका सदा हंसमुख
चेहरा और बिना बाल का सर एक अलग ही पेहचान बनाता था। गंजे लोगों को ‘टकला’ कह कर उपालंभ
करने की बजाय सम्मान देने के लिए ऐसे लोगों को अब ‘डेवीड’ कहा जाने लगा। ‘डेवीड’ शब्द
नाम न रहकर एक विशेषण बन गया था।
और क्यों नहीं बनता?
उन्हें ऋषिकेश मुकरजी की बेनमून कृति ‘अनुपमा’
में ‘अंकल मोज़ेज़’ के रोल में देखो तो डेवीड अभिनय करते लगते ही नहीं। पूरी फ़िल्म में
सब को बात बात पर हंसाने वाले डेवीड “क्युं
मुझे इतनी खुशी द दी, कि घबराता है दिल...” में डान्स करते हैं और एक बार तो अपने
गंजे सर पर गिलास रखकर भी नाचते हैं। इसी तरह से ऋषिदा की अन्य एक फ़िल्म ‘अभिमान’ में शास्त्रीय संगीत के दिग्गज कलाकार
ब्रीजेश्वर राय जी की छोटी भूमिका में भी याद रह जाते हैं; क्योंकि मध्यान्तर उन्हींके
बोलों पर आता है। ‘राय साहब’ बने डेवीड भविष्य देख पाते हैं कि अमिताभ के पात्र ‘सुबीर’
से उनकी नई दुल्हन ‘उमा’ बनी जया जी का गाना ज्यादा अच्छा था और पत्नी ज्यादा प्रतिभाशाली
होने की वजह से दोनों के दाम्पत्य में टकराव होगा।
डेवीड की यादगार भूमिकाओं
में अन्य एक फ़िल्म ‘सत्यकाम’ में शर्मिला
टैगोर के पालक पिता ‘रुस्तमजी’ के पात्र में उनकी प्रतिभा के करीब सभी रंग देखने को
मिले थे। एक सशक्त चरित्र अभिनेता के रूप में डेवीड को कितनी सारी फ़िल्मों में दर्शकों
ने पसंद किया था। जैसे ‘ममता’, ‘हिमालय की
गोद में’, ‘उपकार’, ‘सपनों का सौदागर’, ‘हाथी
मेरे साथी’, ‘अनुराग’, ‘खट्टा मीठा’, ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’, ‘चुपके चुपके’, ‘बातों
बातों में’, ‘खुबसुरत’, ‘गोलमाल’, ‘हमारे तुम्हारे’, ‘झुक गया आसमान’, ‘मेमदीदी’,
‘शहर और सपना’ इत्यादि १०० से अधिक फ़िल्में
उनके नाम पर हैं। उनमें से ज्यादातर चित्रों में उनका पात्र सकारात्मक ही होता था।
उसकी एक वजह यह भी थे कि उनकी आंखों में भलाई का भाव स्थायी था। वे चाहकर भी बुरे नहीं
दिख सकते थे। हां, कई साल पहले ’४४ में एक फ़िल्म ‘द्रौपदी’ में उनकी ‘मामा शकुनि’ की भूमिका जरूर थी। उस के अलावा भारत
की प्रथम सुपर हीट ‘किस्मत’ में भी उनका
रोल चोरी का माल खरीदने वाले जौहरी का था। युं देखा जाय तो ‘बुट पॉलीश’ के ‘जहोन चाचा’ भी तो देसी शराब के असामाजिक धंधे में लगे
इन्सान थे, जिनका दिल सोने का था।
परंतु, एक बार चरित्र
अभिनेता बनने के बाद तो उनका रास्ता भलाई का ही रहा था। डेवीड साहब की उम्र बढने के
साथ स्वास्थ्य ने मुश्किलें खडी करना प्रारंभ कर दिया था। जब उन्हें ह्रदय की तकलीफ
शुरु हुई तब वे सी सी आई चेम्बर में भूतल पर रहने चले गए थे, ताकि सीढी़याँ चढना न पडे। लेकिन जब दुसरी बार दिलका
दौरा पडा तब यहाँ रहतीं उनकी भतीजी के आग्रह पर १९७८ में डेवीड जी रहने के लिए टोरन्टो
आ गए। जब वे टोरन्टो आये तब अपने साथ १९ कार्टून भरकर किताबें ले कर आये थे! पढने के
इतने शौकिन इस महान कलाकार ने कनाडा में भी अपने खेल-कूद के शौक को बरकरार रखा था।
आखिर १९८२ की २ जनवरी के दिन डेवीड साहब ने आखरी सांस ली। लेकिन ‘जहोन चाचा’ की तरह
उनके द्वारा अभिनित कितने ही पात्रों से डेवीड अब्राहम आज भी हमारे बीच ज़िन्दा ही हैं।
[इस लेख के लिए सहायक सामग्री प्रदान करने के लिए वरिष्ठ इतिहासविद श्री हरीश रघुवंशी (सुरत) का हार्दिक धन्यवाद]
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