मोतीलाल
सिनेमा को अति नाटकीय अभिनय से
राजकपूर
की फ़िल्म ‘जागते रहो’ देखने वालोंको उसका
गाना “ज़िन्दगी ख्वाब है, ख्वाब में झुठ क्या
और भला सच है क्या?” गाते मोतीलाल जी के लडखडाते कदम आज भी याद होंगे। वही मोतीलाल
पाठकों को ‘वक्त’ में सरकारी वकील ‘मिस्टर
पटेल’ की एक अच्छी खासी भूमिका में सुनिल दत्त की कार्यवाहीओं तथा दलीलों का कानूनी
जवाब देते भी स्मरण में आते होंगे। ‘वक्त’
की अदालती कार्यवाही में सुनिल दत्त लाश के बदले लाल रंग टपकता बोरा घसीटकर कोर्ट में
ले आते हैं उस अविस्मरणीय द्दश्य के बाद जब न्यायाधीश मोतीलाल को भी ‘ट्राय’ करने को
कहते हैं, तब वे क्या करते हैं? उस बोरे को दूर से देखते हैं और विरोधी वकील की चाल
में नहीं फंसने की अदा में कहते हैं, “खून
पर जुतों के निशान पडेंगे या नहीं इस बात का फैसला मैं अदालत पर छोडता हुँ...”!
‘वक्त’ के उस मर्डर केस में सुनिल दत्त के हिस्से अति नाटकीय
द्दश्य आये थे। वे अदालत में चीखते-चिल्लाते हैं (“आपने गीता पर हाथ रखकर कसम खाई है... ये गीता है... भगवान का रूप है...”),
कभी अपने बिखरे बाल को ठीक करते तो कभी पसीना पोंछते दिखते हैं और मोतीलाल जी? वे बडे
ही स्वाभाविक ढंग से बिना उत्तेजित हुए, इत्मिनान से, अपनी बात रखते जाते हैं। इस अभिनय
को ‘मोतीलाल ट्रेडमार्क’ कहते हैं! इसी तरह से उनको ‘देवदास’ बने दिलीपकुमार के मित्र ‘चुन्नीलाल’ का किरदार निभाते याद करें
तो? अगर नये ‘देवदास’ में शाहरूख के ‘चुन्नीबाबु’
जॅकी श्रोफ के अभिनय को देखें तो फर्क स्पष्ट दिखाई देता है। अभिनय के मामले में मोतीलाल
जी का हिन्दी सिनेमा में (और शायद सभी भाषाओं की भारतीय फ़िल्मों में भी) सबसे बडा योगदान
ये था कि उन्होंने अभिनय को आगे से चली आ रही नाटकीयता से मुक्ति दिलाई।
मोतीलाल
ने जिस दौर में (१९३४ में) अपना करियर प्रारंभ किया था उस समय के. एल. सहगल जैसे सिंगर
एक्टर्स और पृथ्वीराज कपूर सरीखे रंगमंच से आए अभिनेताओं का बोलबाला था। नाटक के संवाद
बोलते समय, पुराने समय में ये ध्यान रखना पडता था कि वो अंतिम पंक्ति में बैठे दर्शक
को भी सुनाई दे और इस लिए डाइलॉग जोर से बोलने पडते थे। सिनेमा के संवादों की अदायगी
में और अभिनय में स्वाभाविकता लाने का श्रेय मोतीलाल जी को जाता है; बाद में जिस परंपरा
को बलराज साहनी से लेकर नसीरूद्दीन शाह और आज की पीढी के इरफ़ान खान जैसे अभिनेताओं
ने अपने अपने ढंग से आगे बढाया।
उस
समय के कई अभिनेताओं की तरह मोतीलाल भी अभिनय में अकस्मात ही आ गए थे। दरअसल, उनका
इरादा तो नौकादल में शामिल होनेका था। ४ दिसम्बर (१९१०) के दिन शिमला में जन्मे ‘मोतीलाल
राजवंशी’ ने एक साल की अत्यंत छोटी उम्र में अपने पिता को गंवा दिया था। इस लिए अपने
चाचा के यहाँ पले बडे हुए और दिल्ही में कालिज का अभ्यास पूर्ण किया। २४ साल के युवा
मोतीलाल नेवी की परीक्षा देने मुंबई आये। लेकिन
बीमार होने की वजह से उस में हिस्सा नहीं ले पाये। उन दिनों तीन साल पहले, १९३१ में,
ही सिनेमा बोलता हुआ था। इस लिए उस नये माध्यम के बारे में काफी उत्सुकता थी। यंग मोतीलाल
भी एक फ़िल्म की शुटींग देखने सागर स्टुडियो पहुँच गए; जहाँ निर्देशक सी.पी. लुहार को वह सुकुमार लडका पहली
नजर में ही पसंद आ गया। उन्होंने अपनी फ़िल्म के नायक की भूमिका मोतीलाल को दी और १९३४
की ‘शहर का जादु’ से उनका फ़िल्मों का सफर
शुरु हो गया।
१९३४
से १९६५ में उनके निधन होने तक मोतीलालजी ने जिन फ़िल्मों में काम किया उनमें उनकी अभिनय
प्रतिभा अलग रंग ला रही थी। अगर ‘ये रास्ते
हैं प्यार के’ में वे फिर एक बार वकालत कर रहे थे तो ‘लीडर’ में दिलीपकुमार के मुकाबले के नेता ‘आचार्य’ बने थे। दिलीप कुमार और
राज कुमार जैसे दो दो स्टाइलिश अदाकारों के साथ ‘पैगाम’ में वे मिल मालिक की भूमिका में थे। उस समय के अन्य अभिनेताओं
से उनकी एक्टींग का स्टाइल तो अलग था ही, उनका रहन सहन भी जुदा था। वे जब रणजीत स्टुडियो के साथ जुडे थे, तब उन्हें अपने यहाँ से नहीं जाने देने के लिए शेरदिल निर्माता सरदार चंदुलाल शाह ने मोतीलाल को एक लाख रूपये नकद दिये थे। इतने अच्छे पैसे कमाने वाले मोतीलाल ने पैसे बचाने का कभी सोचा ही नहीं था। उनके घर मेहफ़िल
जमानी हो या सार्वजनिक रूप से कलाकारों का क्रिकेट मेच हो, मोतीलाल सब में तैयार रहते
थे। जुआ तो जैसे उनकी रगों में दौडता था।
जुआ चाहे ताश के पत्तों का हो या घोडों की रेस का, मोतीलाल बढ़-चढ़ कर उस में हिस्सा लेते थे। ताश में रमी उनका प्रिय खेल था। जहां उन दिनों बडे बडे स्टार्स भी ५० रूपये पॉइन्ट से खेलने से डरते थे, वहीं मोतीलाल २५० रूपये पॉइन्ट खेलते थे और वो भी बम्बई के बडे बडे धनी लोगों के साथ! रेसकोर्स में जाकर घोडों पर दांव लगाने में भी वे अपने दोस्त और लोकप्रिय नायक चन्द्रमोहन के साथ नियमित थे। रेस में एक बार एक साथ वे डेढ लाख रूपया हार गये। उन दिनों के १.५० लाख आज के जाने कितने रुपये होते होंगे? मगर उस इन्सान का स्वभाव इतना अलग था कि उस हार की भी एक पार्टी दी थी! उनके ऐसे शौक के कारण किसी समय पर अपना खुद का विमान रखने वाले मोतीलाल को अपने अंतिम दिनों में किराये की टैक्सी से सफर करना पडता था।
जुआ चाहे ताश के पत्तों का हो या घोडों की रेस का, मोतीलाल बढ़-चढ़ कर उस में हिस्सा लेते थे। ताश में रमी उनका प्रिय खेल था। जहां उन दिनों बडे बडे स्टार्स भी ५० रूपये पॉइन्ट से खेलने से डरते थे, वहीं मोतीलाल २५० रूपये पॉइन्ट खेलते थे और वो भी बम्बई के बडे बडे धनी लोगों के साथ! रेसकोर्स में जाकर घोडों पर दांव लगाने में भी वे अपने दोस्त और लोकप्रिय नायक चन्द्रमोहन के साथ नियमित थे। रेस में एक बार एक साथ वे डेढ लाख रूपया हार गये। उन दिनों के १.५० लाख आज के जाने कितने रुपये होते होंगे? मगर उस इन्सान का स्वभाव इतना अलग था कि उस हार की भी एक पार्टी दी थी! उनके ऐसे शौक के कारण किसी समय पर अपना खुद का विमान रखने वाले मोतीलाल को अपने अंतिम दिनों में किराये की टैक्सी से सफर करना पडता था।
नैचरल
अभिनय के साथ साथ हिन्दी फ़िल्म संगीत में उनका एक योगदान बहुमूल्य है। जो गाने दुःख
और पीडा के समय में हमें आज भी सहलाते हैं, उन दर्दीले गीतों के अमर गायक मुकेश को
फ़िल्म संगीत की दुनिया से मोतीलाल जी ने ही परिचित करवाया था। मुकेश को एक शादी में
गाते हुए सुनकर मोतीलाल उन्हें दिल्ही से मुंबई ले आये। उन्होंने अपने ही घर में मुकेश
के लिए रहने की व्यवस्था की। इतना ही नहीं पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की बाकायदा
तालिम भी दिलवाई। मुकेश जी के लिए वे पारिवारिक बडे थे। यहाँ तक कि जब मोतीलाल के पडोस
में रहती गुजराती लडकी सरला त्रिवेदी (बचीबेन) से भागकर मुकेश जी ने शादी की, तब कन्यादान
मोतीलाल ने किया था।
मुकेश
की तरह हमारे दर्द को सिनेमा के पर्दे पर ले आने वाली एक अभिनेत्री मीनाकुमारी भी उन्हें
‘बडे भैया’ कहतीं थीं, क्यॉंकि ’४३ की ‘प्रतिज्ञा’
में ११ साल की उस बच्ची ‘महजबीं’ने उनको ‘भैया’ बनाया था। हर रक्षाबंधन पर मीना जी
अपने ‘मोती भैया’ को राखी बांधती थीं। उसी तरह से नरगीस भी मोतीलाल को ‘भैया’ ही कहतीं
थीं। नरगीस की प्रथम फ़िल्म ‘तकदीर’ के
हीरो मोतीलाल थे। नरगीस जब बाल कलाकार थीं तब ‘बेबी नरगीस’ कहलातीं थीं और मज़े की बात
ये थी कि मोतीलाल उस बालिका को अपने कंधे पर बिठाकर स्टुडियो में घूमते थे। लेकिन १४
साल की छोटी उम्र में मेहबूब खान ने ‘तकदीर’
की नायिका के रूप में मोतीलाल के साथ ‘मीनाकुमारी’ के नाम से प्रस्तुत किया था। परंतु,
हर शोट के बाद प्रेमी से भाई-बहन हो जाते थे।
मोतीलाल
को राज कपूर भी ‘बडे भैया’ ही कहते थे। वे अपने ‘मोतीभैया’ का इतना आदर करते थे कि
‘जागते रहो’ और ‘अनाडी’ जैसी फ़िल्मों में साथ काम करते वक्त या किसी पार्टी में मिलने
पर भी मोतीलाल की उपस्थिति में राज कपूर कभी सिगरेट नहीं पीते थे। ‘अनाडी’ में भी उनका एक संवाद फ़िल्म देखने
वालों को आज भी याद होगा। पार्टी में जाते मोतीलाल का बटुआ क्लब के बाहर गिर जाता है
और राज कपूर उन्हें वो लौटाते हैं। क्लब में कौन लोग हैं? इस बात का खुलासा करते हुए
मोतीलाल जी कहते हैं, “ये सब वो लोग हैं, जिन्हें रास्ते में से बटुए मिले मगर
उन्होंने लौटाये नहीं थे!”
तो
‘अनाडी’ की नायिका नूतन मोतीलाल जी के
लिए सचमुच ही बेटी जैसी थी। नूतन की माताजी अभिनेत्री शोभना समर्थ के साथ मोतीलाल की
किसी समय पर अच्छी और चर्चित जोडी थी। नूतन को बतौर हिरोइन प्रस्तुत करने के लिए शोभना
जी ने फिल्म बनाई ‘हमारी बेटी’ जिस में
मोतीलाल उनके पिता की भूमिका में थे। जानते हैं नूतन के बारे में मोतीलाल कब से पता
था? उनकी शोभना समर्थ के साथ की पहली फ़िल्म ‘दो
दीवाने’ के सेट पर झुले पर बैठी नायिका को झुलाने के लिए धक्का देना था। मोतीलाल
ने इतने जोर से धक्का दिया कि शोभना जी गिर पडीं। तत्काल डॉक्टर को बुलाया गया और जांच
के बाद पता चला कि हिरोइन का स्वास्थ्य बिलकुल ठीकठाक है.... बल्कि उनके तो अच्छे दिन
चल रहे थे! कुछ महिनों बाद बेटी नूतन का जन्म हुआ था।
’६०
के दशक में मोतीलाल एक चरित्र अभिनेता के रूप में अच्छे प्रस्थापित थे; तभी अपने निर्देशन
में ‘छोटी छोटी बातें’ चलचित्र का निर्माण
किया, जो कि उनके लिए हर लिहाज से नुकसान देने वाला साबित हुआ। आखिर ‘देवदास’ के ‘चुन्नीबाबु’ के पात्र में
‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेता’ का फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड जीतने वाले हिन्दी सिनेमा के इस प्रथम
स्वाभाविक अभिनेता ने १९६५ की १० जुन के दिन
सिर्फ पचपन साल की आयु में आखरी सांस ली। परंतु, ‘अनाडी’, `अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘परख’, ‘लीडर’,
‘जागते रहो’ और ‘वक्त’ जैसी फ़िल्मों
में अपने स्वाभाविक अभिनय वाले पात्रों से मोतीलाल जी आज भी हमारे बीच ज़िन्दा ही हैं।
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